SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 110] [मोपपातिकसूत्र जह गरगा गम्मती जे गरगा जाय वेयणा गरए। सारीरमाणुसाई दुक्खाई तिरिक्खजोणीए // 1 // माणुस्सं च अणिचं वाहि-जरा-मरण-वेयणापउरं / देवे य देवलोए देविड्द देवसोक्खाई // 2 // णरगं तिरिक्खजोणि माणुसभा च देवलोगं च / सिद्ध प्र सिद्धवसहि छज्जीवणियं परिकहेइ / / 3 / / जह जीवा बज्झती मुच्चंती जह य संकिलिस्सति / जह दुक्खाणं अंतं करेंति केई अपडिबद्धा // 4 // अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुर्वेति / जह वेरगमुवगया कम्मसमुग विहाउँति // 5 // जह रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो / जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति // 6 // ५६--तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने भभसारपुत्र राजा कणिक, सुभद्रा आदि रानियों तथा महती परिषद् को धर्मोपदेश किया। भगवान महावीर की धर्मदेशना सुनने को उपस्थित परिषद् में ऋषि-द्रष्टा-अतिशय ज्ञानी साधु, मुनि-मौनी या वाक् संथमी साधु, यति चारित्र के प्रति अति यत्नशील श्रमण, देवगण तथा सैकड़ों-सैकड़ों श्रोताओं के समूह उपस्थित थे। अोध बली-अव्यवच्छिन्न या एक समान रहने वाले बल के धारक, अतिबली-अत्यधिक बल सम्पन्न, महाबली-प्रशस्त बलयुक्त, अपरिमित-असीमवीर्य-यात्मशक्तिजनित बल, तेज महत्ता तथा कांतियुक्त, शरत् काल के नूतन मेघ के गर्जन, क्रौंच पक्षी के निर्घोष तथा नगाड़े की ध्वनि के समान मधुर गंभीर स्वर युक्त भगवान महावीर ने हृदय में विस्तृत होती हुई, कंठ में अवस्थित होती हुई तथा मूर्धा में परिव्याप्त होती हुई सुविभक्त अक्षरों को लिए हुए.- पृथक् स्व-स्व स्थानीय उच्चारण युक्त अक्षरों सहित, अस्पष्ट उच्चारणजित या हकलाहट से रहित, सुव्यक्त अक्षर-सन्निपात-वर्णसंयोग--वर्णों की व्यवस्थित शृखला लिए हुए, पूर्णता तथा स्वर-भाधुरी युक्त, श्रोताओं को सभी भाषायों में परिणत होने वाली, एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर में, अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का परिकथन किया। उपस्थित सभी आर्य-अनार्य जनों को अग्लान भाव से-बिना परिश्रान्त हुए धर्म का आख्यान किया / भगवान् द्वारा उद्गीर्ण अर्द्धमागधी भाषा उन सभी पार्यों और अनार्यों की भाषाओं में परिणत हो गई। भगवान् ने जो धर्मदेशना दी, वह इस प्रकार है लोक का अस्तित्व है, अलोक का अस्तित्व है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, बासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यंचयोनि, तिर्यंचयोनिक जीव, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि, सिद्ध, परिनिर्वाण-कर्मजनित प्रावरण के क्षीण होने से आत्मिक स्वस्थता-परम शान्ति, परिनिर्वत्त ---परिनिर्वाणयुक्त व्यक्ति--इनका अस्तित्व है। प्राणातिपात-हिंसा, मषाबाद-असत्य, अदत्तादान-चोरी, मैथुन और परिग्रह हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, (प्रेम-अप्रकट माया व लोभजनित प्रिय या रोचक भाव, द्वेष-अव्यक्त मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy