________________ भगवान द्वारा धर्म-वेशना] [113 57 तमेव धम्म दुविहं प्राइक्खा / तं जहा-प्रमारधम्म (स) अणगारधम्म च / प्रणगार व.--इह खलु सव्यओ सव्यसाए मुडे मचित्ता अगारानो प्रणमारियं पवइयस्स सब्वाम्रो पाणाइवायानो वेरमणं, मुसावाय-अविण्णादाण-मेहुण-परिग्गह-राईभोयणाम्रो बेरमणं। अयमाउसो ! मणगारसामाइए धम्मे पण्णते, एयरस धम्मस्स सिक्खाए उपट्टिए जिथे था णिग्गंथी वा विहरमाणे माणाए प्राराहए भवति / ___ अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा–१ पंच अणुभ्ययाई, 2 तिणि गुणब्बयाई, 3 चत्तारि सिक्खावयाई। पंच अणुव्वयाई तं जहा-१ फलानो पाणाइवायाप्रो वेरमणं, 2 थूलामो मुसावायाओ बेरमणं, 3 थलामो अदिण्णादाणाम्रो वेरमणं, 4 सवारसंतोसे, 5 इच्छापरिमाणे। तिणि मुपदयाई, तं जहा-६ प्रणत्थदंडवेरमणं, 7 दिसिस्वयं, 8 उवभोगपरिभोगपरिमाणं / चत्तारि सिक्खावयाई, तं जहा–९ सामाइयं, 10 देसावयासियं, 11 पोसहोदवासे, 12 प्रतिहिसंविभागे, अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणासणाराहणा / अयमाउसो ! अगारसामाइए धम्मे पण्णते। एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उपट्टिए समणोवासए का समणोवासिया वा विहरमाणे प्राणाए प्राराहए भवइ / ५७-आगे भगवान् ने बतलाया-धर्म दो प्रकार का है- प्रगार-धर्म और अनगार धर्म / अनगार-धर्म में साधक सर्वतः सर्वात्मना-सम्पूर्ण रूप में, सर्वात्मभाव से सावध कार्यों का परित्याग करता हुमा मुडित होकर, गृहवास से अनगार दशा--मुनि-अवस्था में प्रवजित होता है / वह सम्पूर्णतः प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि-भोजन से विरत होता है। भगवान् ने कहा-आयुष्मान ! यह अनगारों के लिए समाचरणीय धर्म कहा गया है। इस धर्म की शिक्षा-अभ्यास या पाचरण में उपस्थित-प्रयत्नशील रहते हुए निम्रन्थ-साधु या निर्ग्रन्थी साध्वी प्राज्ञा (अहत्-देशना) के प्राराधक होते हैं। भगवान् ने अगारधर्म 12 प्रकार का बतलाया-५ अणुव्रत 3 गुणव्रत तथा 4 शिक्षावत / 5 अणुवत इस प्रकार हैं-१. स्थूल प्राणातिपात--त्रस जीव की संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा से निवृत्त होना, 2. स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना, 3. स्थूल अदत्तादान से निवृत्त होना, 4. स्वदारसन्तोष-अपनी परिणीता पत्नी तक मैथुन की सीमा, 5. इच्छा--परिग्रह की इच्छा का परिमाण या सीमाकरण / 3. गुणव्रत इस प्रकार हैं---१. अनर्थदण्ड-विरमण—प्रात्मा के लिए अहितकर या प्रात्मगुणघातक निरर्थक प्रवृत्ति का त्याग, 2. दिग्वत—विभिन्न दिशाओं में जाने के सम्बन्ध में मर्यादा या सीमाकरण, 3. उपभोग-परिभोग-परिमाण-उपभोग—जिन्हें अनेक बार भोगा जा सके ऐसी वस्तुएंजैसे वस्त्र आदि तथा परिभोग-उन्हें एक ही बार भोगा जा सके-जैसे भोजन आदि–इनका परिमाण–सीमाकरण / 4 शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं:-१. सामायिक समता या समत्वभाव की साधना के लिए एक नियत समय (न्यूनतम एक मुहूर्त-४८ मिनट) में किया जाने वाला अभ्यास, 2. देशावकाशिक-नित्य प्रति अपनी प्रवत्तियों में निवृत्ति-भाव की वृद्धि का अभ्यास 3. पोषधोपवास-अध्यात्म-साधना में अग्रसर होने हेत यथाविधि प्रहार, अब्रह्मचर्य आदि का त्याग तथा 4. अतिथि-संविभाग-जिनके आने की कोई तिथि नहीं, ऐसे अनिमंत्रित संयमी साधकों को सार्मिक बन्धुत्रों को संयमोपयोगी एवं जीवनोपयोगी अपनी अधिकृत सामग्री का एक भाव आदरपूर्वक देना, सदा मन में ऐसी भावना बनाए रखना कि ऐसा अवसर प्राप्त हो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org