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________________ रानियों का सपरिजन आगमन, वन्दन] [107 कान्ति-देहदीप्ति, उत्तम सौभाग्य प्रादि गुणों के कारण-ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे। नर-नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला--प्रणामांजलियों को अपना दाहिना हाथ ऊंचा उठाकर बार-बार स्वीकार करता हुआ, अत्यन्त कोमल वाणी से उनका कुशल पूछता हुघा, घरों की हजारों पंक्तियों को लांघता हुआ राजा कूणिक चम्पा नगरी के बीच से निकला / निकल कर, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पाया / पाकर भगवान के न अधिक दूर न अधिक निकट-समुचित स्थान पर रुका। तीर्थकरों के छत्र आदि अतिशयों को देखा / देख कर अपनी सवारी के प्रमुख उत्तम हाथी को ठहराया, हाथी से नीचे उतरा, उतर कर तलवार, छत्र, मुकुट, चंबर-इन राज चिह्नों को अलग किया, जूते उतारे। भगवान् महावीर जहाँ थे, वहाँ पाया / आकर, सचित्त - सजीव पदार्थों का व्युत्सर्जन--अलग करना, अचित्त-अजीव पदार्थों का अव्युत्सर्जन-अलग न करना, अखण्ड-ग्रनसिले वस्त्र का उत्तरासंग-- उत्तरीय की तरह कन्धे पर डालकर धारण करना, धर्म-नायक पर दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना, मन को एकाग्र करना-इन पाँच नियमों के अनुपालनपूर्वक राजा कूणिक भगवान् के सम्मुख गया / भगवान् को तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा कर वन्दना को, नमस्कार किया। वन्दना, नमस्कार कर कायिक, वाचिक, मानसिक रूप से पर्युपासना की। कायिक पर्युपासना के रूप में हाथों-पैरों को संकुचित किये हुए सिकोड़े हुए, शुश्रूषा सुनने की इच्छा करते हुए, नमन करते हुए भगवान् की ओर मुह किये, विनय से हाथ जोड़े हए स्थित रहा। वाचिक पर्यपासना के रूप में जो-जो भगवान बोलते थे, उसके लिए "यह ऐसा ही है भन्ते ! यही तथ्य है भगवन् ! यही सत्य है प्रभो ! यही सन्देह-रहित है स्वामी! यही इच्छित है भन्ते ! यही प्रतीच्छित स्वीकृत है, प्रभो! यही इच्छित-प्रतीच्छित है भन्ते ! जैसा आप कह रहे हैं।" इस प्रकार अनुकूल वचन बोलता रहा / मानसिक पर्युपासना के रूप में अपने में अत्यन्त संवेग-मुमुक्षु भाव उत्पन्न करता हुआ तीव्र धर्मानुराग से अनुरक्त रहा / रानियों का सपरिजन आगमन, वन्दन ५५---तए णं तानो सुभद्दप्पमुहाम्रो देवोनो अंतोअंतेउरंसि पहायानो जाव (कयबलिकम्मानो कयकोउय-मंगल-पायच्छित्तानो), सन्चालंकारविभूसियामो बहूहि खुज्जाहिं चिलाईहि वामणीहिं वडभीहि, बब्बरीहि बउसियाहि जोणियाहि पलवियाहि ईसिणियाहि चारणियाहि लासियाहि लउसियाहि सिंहलोहिं दमिलीहिं प्रारबीहि पुलिदोहिं पक्कणीहि बहलोहि मुरुडोहि सबरोहिं पारसीहि णणादेसीहि विदेसपरिमंडियाहि इंगियचितियपत्थियवियाणियाहि, सदेसणेवत्थरपहियवेसाहिं चेडियाचक्कवालरिसधरकंचुइज्जमहत्तरवंदपरिक्खित्तायो अंतेउराम्रो णिग्गच्छंति, णिगच्छित्ता जेणेव पाडियक्षकजाणाई, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पाडियक्कपाडियक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई दुरूहंति, दुरूहित्ता णियगपरियालाद्ध संपरिडामो चंपाए पयरोए मज्झमनई णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेएइ, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणस्स भगवनो महावीरस्स अदरसामंते छत्तादीए तित्थयराइसेसे पासंति, पासित्ता पाडियक्कपाडियक्काइं जाणाई ठति, ठवित्ता जाणेहितो पच्चोरुहंति, पच्चोरहित्ता बहूहि खुज्जाहि जाव परिक्खित्तानो जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छन्ति / तं जहा-१ सचित्ताणं दवाणं विप्रोसरणयाए, 2 प्रचित्ताणं दवाणं अविनोसरणयाए, 3 विणतो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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