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________________ 106] [औपपातिकसूत्र ऐसे शहर, खेट–धूल के परकोटों से युक्त गांव, कबंट-अति साधारण कस्बे, द्रोण-मुख-जल-मार्ग तथा स्थल-मार्ग से युक्त स्थान, मडंब-आस-पास गाँव रहित बस्ती, पत्तन-बन्दरगाह अथवा बड़े नगर, जहाँ या तो जलमार्ग से या स्थलमार्ग से जाना संभव हो, आश्रम-तापसों के आवास, निगमव्यापारिक नगर, संवाह-पर्वत की तलहटी में बसे गांव, सन्निवेश झोंपड़ियों से युक्त बस्ती अथवा सार्थवाह तथा सेना आदि के ठहरने के स्थान-इन सबका आधिपत्य, पौरोवृत्त्य-अग्रेसरता या प्रागेवानी, स्वामित्व, भर्तृत्व-प्रभुत्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्व-सेनापत्य-जिसे आज्ञा देने का सर्व अधिकार होता है, ऐसा सैनापत्य-सेनापतित्व-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करते हुए निर्बाध-निरन्तर अविच्छिन्न रूप में नृत्य, गीत, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य-तुरही एवं धनमृदंग-बादल जैसी आवाज करने वाले मृदंग के निपुणतापूर्ण प्रयोग द्वारा निकलती सुन्दर ध्वनियों से आनन्दित होते हुए, विपुल-प्रचुर---अत्यधिक भोग भोगते हुए सुखी रहें, यों कहकर उन्होंने जय-घोष किया / दर्शन-लाभ ५४-तए णं से कणिए राया भंभसारपुत्ते नयणमालासहस्सेहिं पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे, हिययमालासहस्सेहिं अभिणंदिज्जमाणे अभिणंदिज्जमाणे, उन्नाइज्जमाणे मणोरहमालासहस्सेहि विच्छिप्पमाणे विच्छिष्पमाणे, वयणमालासहस्सेहि अभिथुम्बमाणे अभिथुन्यमाणे, कंति-सोहगगुणेहि पस्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे, बहूणं नरनारिसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुझमाणे, भवणपंतिसहस्साइं सभइच्छमाणे समइच्छमाणे चंपाए नयरीए मज्झमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छइत्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता समणस्स भगवनो महावीरस्स अदूरसामंते छताईए तित्थयराइसेसे पासइ, पासित्ता प्राभिसेक्कं हत्थिरयणं ठवेइ, ठवित्ता प्राभिसेक्कामो हत्थिरयणाम्रो पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता अवहट पंच रायकउहाई, तं जहा-खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाम्रो बालवीयर्याण, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छद। तं जहा–१ सचित्ताणं दवाणं विनोसरणयाए, 2 अचित्ताणं दवाणं अविनोसरणयाए, 3 एगसाडियं उत्तरासंगकरणणं, 4 चक्खफासे अंजलिपग्गाहेणं, 5 मणसो एगत्तीभावकरणेणं समणं भगवं महावीर तिवखुत्तो पायाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ, बंदित्ता नमसइ, नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासइ, तं जहा–काइयाए, वाइयाए, माणसियाए / काइयाए-ताव संकुइयग्गहत्थपाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ / वाइयाए–'जं जं भगवं वागरेइ एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे वदह', अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ / माणसियाएमह्यासंवेगं जणइत्ता तिब्धधम्माणुरागरते पज्जुवासइ।। ५४–भभसार के पुत्र राजा कुणिक का सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार दर्शन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी हृदय से उसका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी अपने शुभ मनोरथ हम इनकी सन्निधि में रह पाएँ, इत्यादि उत्सुकतापूर्ण मन:कामनाएं लिये हुए थे। सहस्रों नर-नारी उसका बार-बार अभिस्तवन-गुणसंकीर्तन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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