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________________ 108] [औपपातिकसत्र णयाए गायलट्ठीए, 4 चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं, 5 मणसो एमत्तीभावकरणेणं समणं भगवं महावीरं तिवखुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेंति, बंदंति, गर्मसंति, बंदित्ता, णमंसित्ता कूणियरायं पुरप्रोकट्ट ठिइयानो चेव सपरिवारानो अभिमुहाप्रो विणएणं पंजलिउडायो पज्जुवासंति // ५५–तत्पश्चात् सुभद्रा आदि रानियों ने अन्तःपुर में स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कार्य किये / कौतुक-देह-सज्जा की दृष्टि से आँखों में काजल प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, प्रायश्चित्त -दुःस्वप्नादि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दधि, अक्षत, आदि से मंगल-विधान किया। वे सभी अलंकारों से विभूषित हुईं। फिर बहुत सी देश-विदेश की दासियों, जिनमें से अनेक कुबड़ी थीं; अनेक किरात देश को, थीं, अनेक बौनी थीं, अनेक ऐसी थीं, जिनकी कमर झुकी थीं, अनेक वबंर देश की, बकुश देश की, यूनान देश की, पलव देश की, इसिन देश की, चारुकिनिक देश की, लासक देश की, लकुश देश की, सिंहल देश की, द्रविड़ देश की, अरब देश की, पुलिन्द देश की, पक्कण देश को, बहल देश की, मुरुड देश की, शबर देश की, पारस देश की-यों विभिन्न देशों की थीं जो स्वदेशी-अपने-अपने देश की वेशभूषा से सज्जित थीं, जो चिन्तित और अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में विज्ञ थीं, अपने अपने देश के रीति-रिवाज के अनुरूप जिन्होंने वस्त्र आदि धारण कर रखे थे, ऐसी दासियों के समूह से घिरी हुई, वर्षधरों नपुंसकों कंचुकियों-अन्तःपुर (जनानी ड्योढ़ी) के पहरेदारों--तथा अन्तःपुर के प्रामाणिक रक्षाधिकारियों से घिरी हुई बाहर निकलीं। अन्तःपुर से निकल कर सुभद्रा आदि रानियाँ, जहाँ उनके लिए अलग-अलग रथ खड़े थे, वहाँ आई / वहाँ आकर अपने लिए अलग-अलग अवस्थित यात्राभिमुख-गमनोद्यत, जुते हुए रथों पर सवार हुईं / सवार होकर अपने परिजन वर्ग-दासियों आदि से घिरी हुई चम्पा नगरी के बीच से निकलीं / निकलकर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आईं। पाकर श्रमण भगवान महावीर के न अधिक दूर, न अधिक निकट समुचित स्थान पर ठहरीं। तीर्थंकरों के छत्र आदि अतिशयों को देखा। देखकर अपने अपने रथों को रुकवाया / रुकवाकर वे रथों से नीचे उतरों। नीचे उतरकर अपनी बहुत-सी कुब्जा आदि पूर्वोक्त दासियों से घिरी हुई बाहर निकलीं। जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पाई। आकर भगवान् के निकट जाने हेतु पाँच प्रकार के अभिगमन-नियम जैसे सचित्तसजीव पदार्थों का व्युत्सर्जन, करना, अचित्त-अजीव पदार्थों का अव्युत्सर्जन, गात्रयष्टि देह को विनय से नम्र करना-झुकाना, भगवान् पर दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना तथा मन को एकाग्र करनाधारण किये। फिर उन्होंने तीन बार भगवान महावीर को आदक्षिण-प्रदक्षिणा दी। वैसा कर बन्दननमस्कार किया / वन्दन-नमस्कार कर वे अपने पति महाराज कणिक को आगे कर अपने परिजनों सहित भगवान् के सम्मुख विनयपूर्वक हाथ जोड़े पर्युपासना करने लगीं। भगवान द्वारा धर्म-देशना ५६–एत णं समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स्स सुभद्दापमुहाणं देवीणं तीसे य महतिमहालियाए परिसाए इसिपरिसाए, मुणिपरिसाए, जइपरिसाए, देवपरिसाए, अणेगसयाए, अणेगसयवंदाए, अगसयवंदपरिवाराए, पोहबले, अइबले, महब्बले, अपरिमियबलवीरियतेयमाहप्पकंतिजुत्ते, सारय-णवणिय-महुर-गंभीर-कोंचणिग्घोस-दुदुभिस्सरे, उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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