________________ व्युत्सर्ग] भ्रातरी 'भ्रातृ' शब्द का प्रथमा विभक्ति का द्विवचन रूप है, जिसका अर्थ 'दो भाई' होता है। पर, समास के रूप में यह भाई और बहिन का द्योतक है। उसी प्रकार पुत्र (बेटा) और दुहिता (बेटी) का समास करने पर समस्त पद 'पुत्रौ' होगा। इसी प्रकार और अनेक शब्द हैं / प्रश्न उपस्थित होता है, वैयाकरणों ने वैसा क्यों किया / इस सम्बन्ध में प्रयत्न-लाघव और संक्षिप्तीकरण के रूप में ऊपर जो संकेत किया गया है, तदनुसार प्रयत्न-लाधव का यह क्रम भाषा में चिरकाल से चलापा रहा है / प्रयत्न-लाघव को 'मुख-सुख' भी कहते हैं। हर व्यक्ति का प्रयास रहता है कि उसे किसी शब्द के बोलने में विशेष कठिनाई न हो, उसका मुंह सुखपूर्वक उसे बोल सके, बोलने में कम समय लगे / भाषाशास्त्री बतलाते हैं कि किसी भी जीवित भाषा में विकास या परिवर्तन का नब्वै प्रतिशत से अधिक प्राधार यही है। परिनिष्ठित भाषानों के इर्द गिर्द चलने वाली लोक-भाषाएँ अपने बहुआयामी विकास में इसी आधार को लिए अग्रसर होती है / जैसे संस्कृत का पालक्तक शब्द 'मालता' के रूप में संक्षिप्त और मुखसुखकर बन जाता है। अंग्रेजी आदि पाश्चात्य भाषाओं में भी यह बात रही है। उदाहरणार्थ अंग्रेजी के Knife शब्द को लें। सही रूप में यह 'क्नाइफ' उच्चारित होना चाहिए, पर यहाँ उच्चारण में K लुप्त है / यद्यपि यह एकांगी उदाहरण है, क्योंकि शब्द के अवयव में K विद्यमान है पर उच्चारण के सन्दर्भ में प्रयत्न-लाधव की बात इससे सिद्ध होती है / ऐसे सैकड़ों शब्द अंग्रेजी में हैं। प्राचारांग के धृताध्ययन में साधक की जिस चर्या का वर्णन है, वह ऐसी कठोर साधना से जुड़ी है, जहाँ शारीरिक क्लेश, उपद्रव, विघ्न, बाधा आदि को जरा भी विचलित हुए बिना सह जाने का संकेत है / वहाँ कहा गया है "यदि साधक को कोई मनुष्य गाली दे, अंग-भंग करे, अनुचित और गलत शब्दों द्वारा संबोधित करे, झूठा आरोप लगाए, साधक सम्यक् चिन्तन द्वारा इन्हें सहन करे।"3 "संयम-साधना के लिए उत्थित, स्थितात्मा, अनीह-धीर, सहिष्णु, परिषह-कष्ट से अप्रकम्पित रहने वाला, कर्म-समूह को प्रकम्पित करनेवाला, संयम में संलग्न रहनेवाला साधक अप्रतिबद्ध होकर विचरण करे।"४ _ इस प्रकार साधक की दुःसह अति कठोर एवं उद्दीप्त साधना का वहाँ विस्तृत वर्णन है / -वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी 1.2.68, पृष्ठ 94 1. भ्रातृपुत्री स्वसृदुहितृभ्याम् / भ्राता च स्वसा च भ्रातरौ / पुत्रश्च दुहिता च पुत्रौ। 2. भाषाविज्ञान-पृष्ठ 52, 379 3. से अक्कुठे व हए व लूसिए वा / पलियं पगंथे अदुवा पगंथे / अतहेहिं सद्द-फारोहिं, इति संखाए / एवं से उठिए ठियप्पा, अणिहे अचले चले, अबहिलेस्से परिव्वए। —अायारो 1,6,2. 41,43 -प्रायारो 1,6,5. 106 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org