________________ 8.] [भोपपातिकसूत्र अनगारों द्वारा उत्कृष्ट धर्माराधना ३१-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स बहवे अणगारा भगवंतो अप्पेगइया आयारधरा, जाब (सूयगडधरा, ठाणधरा, समवायधरा, वियाहपण्णत्तिधरा, नायधम्मकहाधरा, उवासगदसाधरा, अंतगडवसाधरा, अणुत्तरोववाइयदसाधरा, पण्हावागरणधरा,) विवागसुयधरा, तत्थ तत्थ तहि तहि देसे देसे गच्छाच्छि गुम्मागुम्मि फड्डाफड्डि अप्पेगइया वायंति, अप्पेगइया पडिपुच्छंति, अप्पेगइया परियति, अप्पेगइया अणुप्पेहंति, अप्पेगइया अक्खेवणीयो, विखेवणीओ, संवेधणोओ, णिवेयणीओ बहुविहानो कहानो कहंति, अप्पेगइया उड्ढजाणू, अहोसिरा, माणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा भावेमाणा विहरति / ३१-उस काल, उस समय-जब भगवान् र चम्पा में पधारे, उनके साथ उनके अनेक अन्तेवासी अनगार-श्रमण थे। उनके कई एक प्राचार (सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण) तथा विपाकश्रुत के धारक थे। वे वहीं-उसी उद्यान में भिन्न-भिन्न स्थानों पर एक-एक समूह के रूप में, समूह के एकएक भाग के रूप में तथा फुटकर रूप में विभक्त होकर अवस्थित थे। उनमें कई प्रागमों को वाचना देते थे-आगम पढ़ाते थे। कई प्रतिपृच्छा करते थे—प्रश्नोत्तर द्वारा शंका-समाधान करते थे। कई अधीत पाठ की परिवर्तना--पुनरावृत्ति करते थे। कई अनुप्रेक्षा-चिन्तन-मनन करते थे। उनमें कई आक्षेपणी-मोहमाया से दूर कर समत्व की ओर आकृष्ट तथा उन्मुख करने वाली, विक्षेपणी-कुत्सित मार्ग से विमुख करने वाली, संवेगनी-मोक्षमुख की अभिलाषा उत्पन्न करने वाली तथा निर्वेदनी--संसार से निर्वेद, वैराग्य, औदासीन्य उत्पन्न करने वाली-यों अनेक प्रकार की धर्मकथाएँ कहते थे। उनमें कई अपने दोनों घुटनों को ऊँचा उठाये, मस्तक को नीचा किये-यों एक विशेष प्रासन में अवस्थित हो ध्यानरूप कोष्ठ में-कोठे में प्रविष्ट थे—ध्यान-रत थे / इस प्रकार वे अनगार संयम तथा तप से प्रात्मा को भावित-अनुप्राणित करते हुए अपनी जीवन-यात्रा चला रहे थे। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के समय में श्रमणों में प्रागमों के सतत् विधिवत् अध्ययन तथा ध्यानाभ्यास का विशेष प्रचलन था। जैसा यहाँ बणित हुआ है, भगवान् महावीर के अन्तेवासी श्रमण आवश्यकता एवं उपयोगिता के अनुसार बड़े-बड़े या छोटे-छोटे समूहों में अलग-अलग बैठ जाते थे, इक्के दुक्के भी बैठ जाते थे और आगमों के अध्ययन, विवेचन, तत्सम्बन्धी चर्चा, विचार-विमर्श आदि में अत्यन्त तन्मय भाव से अपने को लगाये रखते थे / पठन-पाठन चिन्तनमनन की बड़ी स्वस्थ परम्परा वह थी। जिन्हें ध्यान या योग-साधना में विशेष रस होता था, वे अपनी भावना, अभ्यास तथा धारणा के अनुरूप विभिन्न दैहिक स्थितियों में अवस्थित हो उधर संलग्न रहते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org