________________ 74] [ओपपातिकसूत्र समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति यह ध्यान प्रयोगकेवली नामक चतुर्दश गुणस्थान में होता है। प्रयोगकेवलो अन्तिम गुणस्थान है। वहाँ सभी योगों--क्रियाओं का निरोध हो जाता है, आत्मप्रदेशों में सब प्रकार का कम्पन-परिस्पन्दन बन्द हो जाता है। उसे समुच्छिन्नत्रिय-अनिवृत्ति शुक्लध्यान कहा जाता है / इसका काल अत्यल्प-पांच ह्रस्व स्वरों को मध्यम गति से उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतना ही है / यह ध्यान मोक्ष का साक्षात् कारण है। विवेचन-समुच्छिन्न क्रिय-अनिवृत्ति वह स्थिति है, जब सब प्रकार के स्थल तथा सूक्ष्म मानसिक, वाचिक तथा दैहिक व्यापारों से प्रात्मा सर्वथा पृथक् हो जाती है। इस ध्यान के द्वारा अवशेष चार अघाति कर्म-वेदनीय, नाम, गोत्र तथा प्रायु भी नष्ट हो जाते हैं। फलतः आत्मा सर्वथा निर्मल, शान्त, निरामय, निष्क्रिय, निर्विकल्प होकर सम्पूर्ण आनन्दमय मोक्ष-पद को स्वायत्त कर लेता है। __वस्तुतः आत्मा की यह वह दशा है, जिसे चरम लक्ष्य के रूप में उद्दिष्ट कर साधक साधना में संलग्न रहता है। यह आत्मप्रकर्ष की वह अन्तिम मंजिल है, जिसे अधिगत करने का साधक सदैव प्रयत्न करता है। यह मक्तावस्था है, सिद्धावस्था है, जब साधक के समस्त योग-प्रवतिक्रम सम्पूर्णतः निरुद्ध हो जाते हैं, कर्मक्षीण हो जाते हैं, वह शैलेशीदशा--मेरुवत् सर्वथा अप्रकम्प, अविचल स्थिति प्राप्त कर लेता है। फलतः वह सिद्ध के रूप में सर्वोच्च लोकाग्र भाग में संस्थित हो जाता है।' शुक्लध्यान के चार लक्षण बतलाये गये हैं। वे इस प्रकार हैं 1. विवेक-देह से प्रात्मा की भिन्नता-भेद-विज्ञान, सभी सांयोगिक पदार्थों की आत्मा से पार्थक्य की प्रतीति / 2. व्युत्सर्ग-निःसंग भाव से--अनासक्तिपूर्वक शरीर तथा उपकरणों का विशेष रूप से उत्सर्ग-त्याग अर्थात् देह तथा अपने अधिकारवर्ती भौतिक पदार्थों से ममता हटा लेना / 3. अव्यथा-देव, पिशाच आदि द्वारा कृत उपसर्ग से व्यथित, विचलित नहीं होना, पीड़ा तथा कष्ट आने पर प्रात्मस्थता नहीं खोना / 4. असंमोह–देव आदि द्वारा रचित मायाजाल में तथा सूक्ष्म भौतिक विषयों में संमूढ या विभ्रान्त नहीं होना। विवेचन--ध्यानरत पुरुष स्थूल रूप में तो भौतिक विषयों का त्याग किये हुए होता ही है, ध्यान के समय जब कभी इन्द्रिय-भोग संबंधी उत्तेजक भाव उठने लगते हैं तो उनसे भी वह विभ्रान्त एवं विचलित नहीं होता। 1. जया जोगे तिरुभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जई। तया कम्म खवित्ताणं, सिद्धि गच्छइ नीरो। जया कम्म खवित्ताणं, सिद्धि गच्छइ नीरो / तया लोगमत्ययत्थो, सिद्धो हवई सासो। --दशवकालिक सूत्र 4.24-25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org