________________ ध्यान] __यह विवेचन स्थूल ध्येय पदार्थों की दृष्टि से है / जहां ध्येय पदार्थ सूक्ष्म हों, वहाँ उक्त दोनों की संज्ञा सविचार और निर्विचार समाधि है, ऐसा पतञ्जलि कहते हैं।' निविचार-समाधि में अत्यन्त वैशद्य-नर्मल्य रहता है / अतः योगी उसमें अध्यात्म-प्रसादआत्म-उल्लास प्राप्त करता है। उस समय योगी की प्रज्ञा ऋतंभरा होती है, 'ऋतम्' का अर्थ सत्य है। वह प्रज्ञा या विशिष्ट बुद्धि सत्य का ग्रहण करने वाली होती है। उसमें संशय और भ्रम का लेश भी नहीं रहता / उस ऋतंभरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कारों के प्रभाव से अन्य संस्कारों का प्रभाव हो जाता है। अन्ततः ऋतंभरा प्रज्ञा से जनित संस्कारों में भी प्रासक्ति न रहने के कारण उनका भी निरोध हो जाता है / यों समस्त संस्कार निरुद्ध हो जाते हैं / फलतः संसार के बीज का सर्वथा अभाव हो जाता है, निर्बीज-समाधि-दशा प्राप्त होती है / इस सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण इस प्रकार है जनदर्शन के अनुसार आत्मा पर जो कर्मावरण छाये हुए हैं, उन्हीं के कारण उसका शुद्ध स्वरूप प्रावृत है ! ज्यों-ज्यों उन आवरणों का विलय होता जाता है, प्रात्मा की वैभाविक दशा छुटती जाती है और वह स्वाभाविक दशा प्राप्त करती जाती है। प्रावरण के अपचय या नाश के जैनदर्शन में तीन क्रम हैं--क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम / किसी कामिक आवरण का सर्वथा नष्ट या निर्मूल हो जाना क्षय, अवधिविशेष के लिए शान्त हो जाना उपशम तथा कर्मों की कतिपय प्रकृतियों का सर्वथा क्षीण हो जाना तथा कतिपय प्रकृतियों का अवधिविशेष के लिए उपशान्त हो जाना क्षयोपशम कहा जाता है। कर्मों के उपशम से जो समाधि-अवस्था प्राप्त होती है. वह सबीज है; क्योंकि वहाँ कर्म-बीज का सर्वथा उच्छेद नहीं होता, केवल उपशम होता है / कार्मिक आवरणों के सम्पूर्ण क्षय से जो समाधि-अवस्था प्राप्त होती है, वह निर्बीज है, क्योंकि वहाँ कर्म-बीज परिपूर्ण रूप में दग्ध हो जाता है। कर्मों के उपशम से प्राप्त उन्नत दशा फिर अवनत दशा में परिवर्तित हो जाती है, पर कर्मक्षय से प्राप्त उन्नत दशा में ऐसा नहीं होता। एकत्व-वितर्क-अविचार शुक्लध्यान में, पृथक्त्व-वितर्क-सविचार ध्यान की अपेक्षा अधिक एकाग्रता होती है / यह ध्यान भी पूर्व-धारक मुनि ही कर सकते हैं। इसके प्रभाव से चार घातिकर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है और केवलज्ञान-दर्शन प्राप्त कर ध्याता-आत्मा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है। सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति--जब केवली (जिन्होंने केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व प्राप्त कर लिया हो) आयु के अन्त समय में योग-निरोध का क्रम प्रारंभ करते हैं, तब वे मात्र सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन किये होते हैं, उनके और सब योग निरुद्ध हो जाते हैं। उनमें श्वास-प्रश्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया ही अवशेष रह जाती है। वहाँ ध्यान से च्युत होने की कोई संभावना नहीं रहती। तदवस्थागत एकाग्र चिन्तन सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति शुक्लध्यान है। यह तेरहवें गुणस्थान में होता है / 1. एतर्यव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता / -~-पातञ्जल योगदर्शन 1.44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org