________________ 68] [औपपातिकसूत्र प्रशस्त काय-विनय क्या है ? प्रशस्त काय-विनय को अप्रशस्त काय-विनय की तरह समझ लेना चाहिये / अर्थात् अप्रशस्त काय-विनय में जहाँ क्रिया के साथ अनुपयोग–अजागरूकता या असावधानी जुड़ी रहती है, वहाँ प्रशस्त काय-विनय में पूर्वोक्त प्रत्येक क्रिया के साथ उपयोग सावधानी जुड़ी रहती है। यह प्रशस्त काय-विनय है / इस प्रकार यह काय-विनय का विवेचन है। लोकोपचार-विनय क्या है उसके कितने भेद हैं ? लोकोपचार-विनय के सात भेद बतलाये गये हैं, जो इस प्रकार हैं१. अभ्यासवर्तिता---गुरुजनों, बड़ों, सत्पुरुषों के समीप बैठना / 2. परच्छन्दानुवर्तिता-गुरुजनों, पूज्य जनों के इच्छानुरूप प्रवृत्ति करना / 3. कार्यहेतु --विद्या आदि प्राप्त करने हेतु, अथवा जिनसे विद्या प्राप्त की, उनकी सेवा परिचर्या करना। 4. कृत-प्रतिक्रिया- अपने प्रति किये गये उपकारों के लिए कृतज्ञता अनुभव करते हुए सेवा-परिचर्या करना / 5. प्रार्त-गवेषणता-रुग्णता, वृद्धावस्था से पीड़ित संयत जनों, गुरुजनों की सार-सम्हाल तथा औषधि, पथ्य प्रादि द्वारा सेवा-परिचर्या करना / 6. देशकालज्ञता–देश तथा समय को ध्यान में रखते हुए ऐसा आचरण करना, जिससे अपना मूल लक्ष्य व्याहत न हो। 7. सर्वार्थाप्रतिलोमता-सभी अनुष्ठेय विषयों, कार्यों में विपरीत आचरण न करना, अनुकूल प्राचरण करना। यह लोकोपचार-विनय है। इस प्रकार यह विनय का विवेचन है। बैयावृत्य क्या है-उसके कितने भेद हैं ? वैयावृत्त्य--पाहार, पानी, औषध प्रादि द्वारा सेवा-परिचर्या के दश भेद हैं / वे इस प्रकार हैं 1. आचार्य का वैयावृत्त्य, 2. उपाध्याय का वैयावृत्त्य, 3. शैक्ष-नवदीक्षित श्रमण का वैयावत्य, 4. ग्लान-रुग्णता आदि से पीड़ित का वैयावत्य, 5. तपस्वी-तेला श्रादि तप-निरत का वैयावृत्त्य, 6. स्थविर-वय, श्रुत और दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ का वैयावृत्त्य, 7. सार्मिक का वैयावृत्त्य, 8. कुल का वैयावृत्त्य, 9. गण का वैयावृत्त्य, 10. संघ का वैयावृत्त्य / यह वैयावृत्त्य का विवेचन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org