________________ दिनय] अप्रशस्त मनोविनय क्या है ? जो मन सावद्य-पाप या गहित कर्म युक्त, सक्रिय-प्राणातिपात आदि आरम्भ-क्रिया सहित, कर्कश, कटुक-अपने लिए तथा औरों के लिए अनिष्ट, निष्ठुर-कठोर--मृदुतारहित, परुष --- स्नेहरहित-सूखा, पानवकारी--अशुभ कर्मग्राही, छेदकर—किसी के हाथ, पैर आदि अंग तोड़ डालने का दुर्भाव रखनेवाला, भेदकर नासिका ग्रादि अंग काट डालने का बुरा भाव रखने वाला, परितापनकर-प्राणियों को सन्तप्त, परितप्त करने के भाव रखने वाला, उपद्रवणकर-मारणान्तिक कष्ट देने अथवा धन-सम्पत्ति हर लेने का बुरा विचार रखनेवाला, भूतोषघातिक-जीवों का घात करने का दुर्भाव रखने वाला होता है, वह अप्रशस्त मन है / वैसी मनःस्थिति लिए रहना अप्रशस्त मनोविनय है / वैसा मन धारण नहीं करना चाहिए। प्रशस्त मनोविनय किसे कहते हैं ? जैसे अप्रशस्त मनोविनय का विवेचन किया गया है, उसी के आधार पर प्रशस्त मनोविनय को समझना चाहिए / अर्थात प्रशस्त मन, अप्रशस्त मन से विपरीत होता है। वह असावध, निष्क्रिय, अकर्कश, अकटुक-इट --मधुर, अनिष्ठुर-मृदुल-कोमल, अपरुष-स्निग्ध-स्नेहमय, अनास्रवकारी, अछेदकर, अभेदकर, अपरितापनकर, अनुपद्रवणकर--दया, अभूतोपघातिक जीवों के प्रति करुणा, शील-सुखकर होता है। वचन-विनय को भी इन्हीं पदों से समझना चाहिए। अर्थात् वचन-विनय अप्रशस्त-वचनविनय तथा प्रशस्त-वचन-विनय के रूप में दो प्रकार का है / अप्रशस्त मन तथा प्रशस्त मन के विशेषण क्रमश: अप्रशस्त वचन तथा प्रशस्त वचन के साथ जोड़ देने चाहिए। यह वचन-विनय का विश्लेषण है। काय-विनय क्या है - कितने प्रकार का है ? काय-विनय दो प्रकार का बतलाया गया है१. प्रशस्त काय-विनय, 2. अप्रशस्त काय-विनय / अप्रशस्त काय-विनय क्या है- उसके कितने भेद हैं? अप्रशस्त काय-विनय के सात भेद हैं, जो इस प्रकार हैं१. अनायुक्त गमन--उपयोग-जागरूकता या सावधानी बिना चलना। 2. अनायुक्त स्थान-बिना उपयोग स्थित होना-ठहरना, खड़ा होना। 3. अनायुक्त निषीदन-बिना उपयोग बैठना / 4. अनायुक्त त्वग्वर्तन- बिना उपयोग बिछौने पर करवट बदलना, सोना / 5. अनायुक्त उल्लंघन - बिना उपयोग कर्दम आदि का अतिक्रमण करना-कीचड़ आदि लांघना। 6. अनायुक्त प्रलंघन--बिना उपयोग बारबार लांघना / 7. अनायुक्त सर्वेन्द्रिय काययोग-योजनता-बिना उपयोग सभी इन्द्रियों नथा शरीर को योगयुक्त करना—विविध प्रवृत्तियों में लगाना / यह अप्रशस्त काय-विनय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org