________________ [औपपातिकसूत्र या दु:ख बतलाकर संयम-जीवन में स्थिर करते हैं, वे स्थविर कहे जाते हैं / स्थविर की विशेषताओं का वर्णन करते हुए बतलाया गया है___"स्थविर संविग्न-मोक्ष के अभिलाषी, अत्यन्त मृदु या कोमल प्रकृति के धनी तथा धर्मप्रिय होते हैं / ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना में उपादेय अनुष्ठानों को जो श्रमण परिहीन करता है, उनके पालन में अस्थिर बनता है, वे (स्थविर) उसे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की याद दिलाते हैं / पतनोन्मुख श्रमणों को वे ऐहिक एवं पारलौकिक हानि दिखलाकर, बतलाकर मोक्ष के मार्ग में स्थिर करते हैं।" धर्मसंग्रह में इसी प्राशय को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है "संघाधिपति द्वारा श्रमणों के लिए नियोजित तप, संयम, श्रुताराधना तथा प्रात्मसाधना मूलक कार्यों में जो श्रमण अस्थिर हो जाते हैं, इनका अनुसरण करने में कष्ट मानते हैं या इनका जिनको अप्रिय लगता है, उन्हें जो प्रात्मशक्तिसम्पन्न दृढचेता श्रमण उक्त अनुष्ठेय कार्यों में सुस्थिर बनाता है, वह स्थविर कहा जाता है।" इससे स्पष्ट है कि संयम-जीवन, श्रामण्य का अपरिहार्य अंग है, के प्रहरी का महनीय कार्य स्थविर करते हैं। संघ में उनकी अत्यधिक प्रतिष्ठा तथा साख होती है / अवसर प्राने पर वे प्राचार्य तक को आवश्यक बातें सुझा-सकते हैं, जिन पर उन्हें (प्राचार्य को) भी गौर करना होता है। सार यह है कि स्थविर संयम में स्वयं अविचल, स्थितिशील होते हैं और संघ के सदस्यों को वैसे बने रहने में उत्प्रेरित करते रहते हैं। चारित्रविनय क्या है-वह कितने प्रकार का है ? चारित्र-विनय पाँच प्रकार का है१. सामायिकचारित्र-विनय, 2. छेदोपस्थापनीयचारित्र-विनय, 3. परिहारविशुद्धिचारित्र-विनय, 4, सूक्ष्मसंपरायचारित्र-विनय, 5. यथाख्यातचारित्र-विनय / यह चारित्र-विनय है। मनोविनय क्या है--कितने भेद हैं ? मनोविनय दो प्रकार का कहा गया है 1. प्रशस्त मनोविनय, 2. अप्रशस्त मनोविनय / 1. प्रवर्तितव्यापारान् संयमयोगेषु सीदतः साधून् ज्ञानादिषु ऐहिकामुष्मिकापायदर्शनत: स्थिरीकरोतीति स्थविरः / --प्रवचनसारोद्धार, द्वार 2 2. संविग्गो मद्दविनो, पियधम्मो नाणदंसणचरित्ते। जे अठे परिहायइ, सातो ते ह्वई थेरो॥ यः संविग्नो मोक्षाभिलाषी, मार्दवित: संज्ञातमार्द बिकः / प्रियधर्मा एकान्तवल्लभः संयमानुष्ठाने, यो ज्ञानदर्शन-चारित्रेषु मध्ये यानर्थानुपादेयानुष्ठानविशेषान् परिहापयति हानि नयति, तान् तं स्मारयन् भवति स्थबिरः, सोदमानान्साधून ऐहिकाऽऽमुष्मिकापायप्रदर्शनतां मोक्षमार्गे स्थिरीकरोतीति स्थविर इति व्यूत्पत्तेः / .—अभिधानराजेन्द्र भाग 4, पृष्ठ 2386-7 3. तन व्यापारितेष्वर्थेष्वनगारांश्च सीदतः / स्थिरीकरोति सच्छक्तिः स्थविरो भवतीह सः / / --धर्मसंग्रह-अधिकार 3, गाथा 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org