________________ उपाध्याय नक 11. अस्खलित-पाठ में स्खलन न करना, पाठ का यथाप्रवाह उच्चारण करना / 12. अमिलित-अक्षरों को परस्पर न मिलाते हुए.--उच्चारणीय पाठ के साथ किन्हीं दूसरे अक्षरों को न मिलाते हुए उच्चारण करना। 13. अव्यत्या म्रडित-अन्य सूत्रों, शास्त्रों के पाठ को समानार्थक जानकर उच्चार्य पाठ के साथ मिला देना व्यत्यानंडित है। ऐसा न करना अव्यत्या म्रडित है। 14. प्रतिपूर्ण-पाठ का पूर्ण रूप से उच्चारण करना, उसके किसी अंग को अनुच्चारित न रखना। 15. प्रतिपूर्णघोष—उच्चारणीय पाठ का मन्द स्वर द्वारा, जो कठिनाई से सुनाई दे उच्चारण से स्पष्टतया उच्चारण करना। 16. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त-उच्चारणीय पाठ या पाठांश को गले और होठों में अटका कर अस्पष्ट नहीं बोलना / सूत्र-पाठ को अक्षुण्ण तथा अपरिवर्त्य बनाये रखने के लिए उपाध्याय को सूत्र-वाचना देने में कितना जागरूक तथा प्रयत्नशील रहना ह क तथा प्रयत्नशील रहना होता था, यह उक्त विवेचन से स्पष्ट है / लेखनक्रम के अस्तित्व में आने से पूर्व वैदिक, जैन और बौद्ध-सभी परम्पराओं में अपने प्रागमों, पार्ष ग्रन्थों को कण्ठस्थ रखने की प्रणाली थी। मूल पाठ का रूप अक्षुण्ण बना रहे, परिवर्तित समय का उस पर प्रभाव न आए, इस निमित्त उन द्वारा ऐसे पाठक्रम या उच्चारण-पद्धति का परिस्थापन स्वाभाविक था, जिससे एक से सुनकर या पढ़कर दूसरा व्यक्ति सर्वथा उसी रूप में शास्त्र को प्रात्मसात् बनाये रख सके / उदाहरणार्थ संहिता-पाठ, पद-पाठ, क्रम-पाठ, जटा-पाठ और घन-पाठ के रूप में वेदों के पठन का भी बड़ा वैज्ञानिक प्रकार था, जिसने तब तक उनको मूल रूप में बनाये रखा है।' एक से दूसरे द्वारा श्रुति-परम्परा से प्रागम-प्राप्तिक्रम के बावजूद जैन आगम-वाङमय में कोई विशेष मौलिक परिवर्तन आया हो, ऐसा संभव नहीं लगता। सामान्यत: लोग कह देते हैं. किसी से एक वाक्य भी सुनकर दूसरा व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति को बताए तो यत्किञ्चित् परिवर्तन या सकता है, फिर यह कब संभव है कि इतने विशाल प्रागम-वाङमय में काल की इस लम्बी अवधि के बीच भी कोई परिवर्तन नहीं पा सका / साधारणतया ऐसी शंका उठना अस्वाभाविक नहीं है किन्तु प्रागम-पाठ की उपर्युक्त परम्परा से स्वतः समाधान हो जाता है कि जहाँ मूल पाठ की सुरक्षा के लिए इतने उपाय प्रचलित थे, वहाँ पागमों का मूल स्वरूप क्यों नहीं अव्याहत और अपरिवर्तित रहता। __अर्थ या अभिप्राय का प्राश्रय सूत्र का मूल पाठ है। उसी की पृष्ठभूमि पर उसका पल्लवन और विकास संभव है / अतएव उसके शुद्ध स्वरूप को स्थिर रखने के लिए सूत्र-वाचना या पठन का इतना बड़ा महत्त्व समझा गया कि श्रमण संघ में उसके लिए 'उपाध्याय' का पृथक् पद प्रतिष्ठित किया गया। 1. संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृण्ठ 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org