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________________ 62 [औषपातिकसूत्र यहाँ सूत्र-वाङमय का उपदेश करने का प्राशय आगमों की सूत्र-वाचना देना है। स्थानांगवृत्ति में भी उपाध्याय का सूत्रदाता (सूत्रवाचनादाता) के रूप में उल्लेख हुआ है। प्राचार्य की सम्पदाओं के वर्णन-प्रसंग में यह बतलाया गया है कि आगमों की अर्थ-वाचना आचार्य देते हैं। यहाँ जो उपाध्याय द्वारा स्वाध्यायोपदेश या सूत्र-वाचना देने का उल्लेख है, उसका तात्पर्य यह है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता, स्पष्टता, विशदता, अपरिवर्त्यता तथा स्थिरता बताये रखने हेतु उपाध्याय पारंपरिक एवं आज की भाषा में भाषावैज्ञानिक आदि दुष्टियों से अन्तेवासी श्रमणों को मूल पाठ का सांगोपांग शिक्षण देते हैं। ___ अनुयोगद्वार सूत्र में 'पागमतः द्रव्यावश्यक' के संदर्भ में पठन या वाचन का विवेचन करते हए तत्सम्बन्धी विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है, जिससे प्रतीत होता है कि पाठ की एक अक्षण्ण तथा स्थिर परंपरा जैन श्रमणों में रही है। प्रादम-पाठ को यथावत् बनाये रखने में इससे बड़ी सहायता मिली है। आगम-गाथाओं का उच्चारण कर देना मात्र पाठ या वाचना नहीं है। अनुयोगद्वार सूत्र में शिक्षित, जित, स्थित, मित, परिजित, नामसम, घोषसम, अहीनाक्षर, अनत्यक्षर, अव्याविद्वाक्षर, अस्खलित, अमिलित, अव्यत्यानंडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्णघोष तथा कण्ठोष्ठविप्रमुक्त विशेषण दिये गये हैं। ' संक्षेप में इनका तात्पर्य यों है 1. शिक्षित–साधारणतया सीख लेना / 2. स्थित- सीखे हुए को मस्तिष्क में टिकाना / 3. जित—अनुक्रमपूर्वक पठन करना। 4. मित- अक्षर आदि की मर्यादा, संयोजन आदि जानना / 5. परिजित—पूर्णरूपेण काबू पा लेना। 6. नामसम-जिस प्रकार हर व्यक्ति को अपना नाम स्मरण रहता है, उसी प्रकार सूत्र का पाठ याद रहना अर्थात् सूत्र-पाठ को इस प्रकार आत्मसात् कर लेना कि जब भी पूछा जाय, तत्काल यथावत् रूप में बतला सके / 7. घोषसम-स्वर के ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत तथा उदात्त, अनुदात्त, स्वरित के रूप में जो उच्चारण सम्बन्धी भेद वैयाकरणों ने किये हैं, उनके अनुरूप उच्चारण करना / 8. अहीनाक्षर---पाठक्रम में किसी भी अक्षर को होन-लुप्त या अस्पष्ट न कर देना। 9. अनत्यक्षर-अधिक अक्षर न जोड़ना। 10. अव्याविद्धाक्षर--प्रक्षर, पद आदि का विपरीत --उलटा पठन न करना। 1. अनुयोगद्वार सूत्र 19. 2. ऊकालोऽज्झस्वदीर्घप्लुतः / —पाणिनीय अष्टाध्यायी 1.2.27 3. उच्चैरुदात्तः / नीचैरनुदात्तः। समाहारः स्वरितः / --पाणिनीय अष्टाध्यायी 1.2.29-31. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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