________________ 58] [औपपातिकसूत्र 2. प्रतिक्रमणाह-पाप या अशुभ योग से पीछे हटने से सधने वाला प्रायश्चित्त / साधु द्वारा पालनीय पांच समिति तथा तीन गुप्ति के सन्दर्भ में सहसाकारित्व प्रादि के कारण लगने वाले दोषों को लेकर "मिच्छामि दुक्कडं--मिथ्या मे दुष्कृतम"-मेरा दुष्कृत या पाप मिथ्या हो-निष्फल हो, यों चिन्तन पूर्वक प्रायश्चित्त करने से दोष-शुद्धि हो जाती है। 3. तदुभयारी-पालोचना तथा प्रतिक्रमण-दोनों से होने वाला प्रायश्चित्त / 4. विवेकाह-ज्ञानपूर्वक त्याग से होने वाला प्रायश्चित्त / यदि अज्ञानवश साधु सदोष आहार आदि ले ले तथा फिर उसे यह ज्ञात हो जाए, तब उसे अपने उपयोग में न लेकर त्याग देने से यह प्रायश्चित्त होता है। 5. व्युत्साह कायोत्सर्ग द्वारा निष्पन्न होने वाला प्रायश्चित्त / नदी पार करने में, उच्चार–मल, मूत्र आदि परठने में अनिवार्यतः प्रासेवित दोषों की शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त है। भिन्न-भिन्न दोषों के लिए भिन्न-भिन्न परिमाण में श्वासोच्छ्वासयुक्त कायोत्सर्ग का विधान है / 6. तपोऽहं तप द्वारा होने वाला प्रायश्चित्त / सचित्त वस्तु को छूने, आवश्यक प्रादि समाचारी, प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि नहीं करने से लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त है। 7. छेदाह---दीक्षा-पर्याय कम कर देने से निष्पन्न होने वाला प्रायश्चित्त / सचित्त-विराधना, प्रतिक्रमण-प्रकरणता आदि के कारण लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त है। इसमें पांच दिन से लेकर छह मास तक के दीक्षा-पर्याय की न्यूनता करने का विधान है। 8. मूलाह-व्रतों को पुन: प्रतिष्ठापना करने--पून: दीक्षा देने से होने वाला प्रायश्चित्त / प्रायश्चित्त योग्य दूषित स्थान, कार्य आदि के तीन बार सेवन, अनाचार-सेवन-चरित्रभंग तथा जानबूझ कर महाव्रत-खण्डन से लगने वाले दोषों को शुद्धि के लिए यह प्रायश्चित्त है / 9. अनवस्थाप्याह-प्रायश्चित्त के रूप में सुझाया गया विशिष्ट तप जब तक न कर लिया जाए, तब तक उस साधु का संघ से सम्बन्ध-विच्छेद रखना तथा उसे पुन: दीक्षा नहीं देना / यह अनवस्थाप्याई प्रायश्चित्त है। सार्मिक साधु-साध्वियों की चोरी करना, अन्य तीथिक की चोरी करना, गृहस्थ की चोरी करना, परस्पर मारपीट करना आदि से साधु को यह प्रायश्चित्त पाता है / 10. पाराञ्चिकाई-सम्बन्ध विच्छिन्न कर, तप-विशेष का अनुष्ठान कराकर गृहस्थभूत बनाना, पुनः व्रतों में स्थापित करना पाराचिकाई प्रायश्चित्त है। कषाय-दुष्ट, विषय-दुष्ट, महाप्रमादी-मद्यपायी, स्त्यानद्धि निद्रा में प्रमादपूर्ण कर्मकारी, समलैंगिक विषयसेवी को यह प्रायश्चित्त लाता है।' 1. कायोत्सर्ग का आशय शरीर को निश्चल रखना है। 2. (क) स्थानांग सूत्र 3-323 वृत्ति (ख) वहत्कल्पसूत्र उद्देशक 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org