________________ पृथ्वीकाय की हिंसा, अप्काय की हिंसा, तेजस्काय की हिंसा के कारण] [21 पृथिवीकाय की हिंसा के कारण १३–कि ते ? करिसण-पोक्खरिणी-वावि-वप्पिणि-कव-सर-तलाग-चिइ-वेइय' खाइय-प्राराम-विहार-थूभपागार-दार-गोउर-अट्टालग-चरिया-सेउ-संकम-पासाय-विकप्प-भवण-घर - सरण-लयण-प्रावण - चेइयदेवकुल-चित्तसभा-पवा-प्रायतणा-वसह-भूमिघर-मंडवाण कए भायणभंडोवगरणस्स य विविहस्स य अढाए पुढवि हिसंति मंदबुद्धिया। 13. वे कारण कौन-से हैं, जिनसे (पृथ्वीकायिक) जीवों का वध किया जाता है ? कृषि, पुष्करिणी (चौकोर वावड़ी जो कमलों से युक्त हो), वावड़ी, क्यारी, कूप, सर, तालाब, भित्ति, वेदिका, खाई, पाराम, विहार (बौद्धभिक्षुओं ने ठहरने का स्थान), स्तूप, प्राकार, द्वार, गोपुर (नगरद्वार-फाटक), अटारी, चरिका (नगर और प्राकार के बीच का पाठ हाथ प्रमाण मार्ग), सेतु-पुल, संक्रम (ऊबड़-खाबड़ भूमि को पार करने का मार्ग), प्रासाद-महल, विकल्प-विकप्पएक विशेष प्रकार का प्रासाद, भवन, गृह, सरण-झौंपड़ी, लयन-पर्वत खोद कर बनाया हुमा स्थानविशेष, दूकान, चैत्य-चिता पर बनाया हुया चबूतरा, छतरी और स्मारक, देवकुल-शिखरयुक्त देवालय, चित्रसभा, प्याऊ, आयतन, देवस्थान, आवसथ--तापसों का स्थान, भूमिगृह-भौंयरातलघर और मंडप आदि के लिए तथा नाना प्रकार के भाजन-पात्र, भाण्ड-बर्तन आदि एवं उपकरणों के लिए मन्दबुद्धि जन पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में उन वस्तुओं के नामों का उल्लेख किया गया है, जिनके लिए पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा की जाती है। किन्तु इन उल्लिखित वस्तुओं के लिए ही पृथ्वीकाय की हिंसा होती है, ऐसा नहीं समझना चाहिए / यह पदार्थ तो उपलक्षण मात्र हैं, अतः पृथ्वीकाय का घात जिन-जिन वस्तुओं के लिए किया जाता है, उन सभी का ग्रहण कर लेना चाहिए। भायणभंडोवगरणस्स विविहस्स' इन पदों द्वारा यह तथ्य सूत्रकार ने स्वयं भी प्रकट कर दिया है। अकाय की हिंसा के कारण १४-जलं च मज्जण-पाण-भोयण-वस्थधोवण-सोयमाइएहिं। 14. मज्जन--स्नान, पान-पीने, भोजन, वस्त्र धोना एवं शौच-शरीर, गृह आदि की शुद्धि, इत्यादि कारणों से जलकायिक जीवों की हिंसा की जाती है / विवेचन-यहाँ भी उपलक्षण से अन्य कारण जान लेना चाहिए। पृथ्वीकाय की हिंसा के कारणों में भवनादि बनाने का जो उल्लेख किया गया है, उनके लिए भी जलकाय की हिंसा होती है। सूत्रकार ने 'प्राइ (आदि) पद का प्रयोग करके इस तात्पर्य को स्पष्ट कर दिया है / तेजस्काय की हिंसा के कारण १५-पयण-पयावण-जलावण-विदसणेहि अगणि / 1. श्री ज्ञानविमलसूरि रचित वृत्ति में 'वेइय' के स्थान पर "चेतिय" शब्द है, जिसका अर्थ किया है-"चेति मृतदहनार्थ काष्ठस्थापनं / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org