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________________ 20] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 1, अ.१ प्रणलाणिल-तण-वणस्सइगणणिस्सिए य तम्मयतज्जिए चेव तयाहारे तपरिणय-वष्ण-गंध-रस-फासबोंदिरूवे अचक्खुसे चक्खुसे य तसकाइए असंखे / थावरकाए य सुहुम-बायर-पसेय-सरीरणामसाहारणे प्रणेते हणंति प्रविजाणो य परिजाणो य जीवे इमेहि विविहेहि कारणेहिं / १२-बुद्धिहीन अज्ञान पापी लोग पूर्वोक्त तथा अन्य अनेकानेक प्रयोजनों से त्रस-चलतेफिरते, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-जीवों का घात करते हैं तथा बहुत-से एकेन्द्रिय जीवों का उनके आश्रय से रहे हुए अन्य सूक्ष्म शरीर वाले त्रस जीवों का समारंभ करते हैं / ये प्राणी त्राणरहित हैं. उनके पास अपनी रक्षा के साधन नहीं हैं, अशरण हैं उन्हें कोई शरण-प्राश्रय देने वाला नहीं है, वे अनाथ हैं, बन्धु-बान्धवों से रहित हैंसहायकविहीन हैं और बेचारे अपने कृत कर्मों की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं। जिनके परिणाम-अन्त:करण की वृत्तियाँ अकुशल-अशुभ हैं, जो मन्दबुद्धि हैं, वे इन प्राणियों को नहीं जानते / वे अज्ञानी जन न पृथ्वीकाय को जानते हैं, न पृथ्वीकाय के आश्रित रहे अन्य स्थावरों एवं त्रस जीवों को जानते हैं। उन्हें जलकायिक तथा जल में रहने वाले अन्य त्रस-स्थावर जीवों का ज्ञान नहीं है / उन्हें अग्निकाय, वायुकाय, तृण तथा (अन्य) वनस्पतिकाय के एवं इनके आधार पर रहे हुए अन्य जीवों का परिज्ञान नहीं है। ये प्राणी उन्हीं (पृथ्वीकाय आदि) के स्वरूप वाले, उन्हीं के आधार से जीवित रहने वाले अथवा उन्हीं का आहार करने वाले हैं। उन जीवों का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शरीर अपने आश्रयभूत पृथ्वी, जल आदि सदश होता है। उनमें से कई जीव नेत्रों से दिखाई नहीं देते हैं और कोई-कोई दिखाई देते हैं। ऐसे असंख्य त्रसकायिक जीवों की तथा अनन्त सूक्ष्म, बादर, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर वाले स्थावरकाय के जीवों की जानबूझ कर या अनजाने इन (आगे कहे जाने वाले) कारणों से हिंसा करते हैं। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में एकेन्द्रिय आदि प्राणियों की दीनता, अनाथता, अशरणता आदि प्रदर्शित करके सूत्रकार ने उनके प्रति करुणाभाव जागृत किया है / तत्पश्चात् प्राणियों की विविधता प्रदर्शित की है। जो जीव पृथ्वी को अपना शरीर बना कर रहते हैं, अर्थात् पृथ्वी ही जिनका शरीर है वे पृथ्वीकाय या पृथ्वीकायिक कहलाते हैं / इसी प्रकार जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ही जि शरीर है, वे क्रमशः जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक कहलाते हैं / पृथ्वीकायिक आदि के जीवत्व की सयुक्तिक एवं सप्रमाण सिद्धि प्राचारांग आदि शास्त्रों में की गई है। अतएव पाठक वहीं से समझ लें / विस्तार भय से यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया जाता है। जब कोई मनुष्य पृथ्वीकाय आदि की हिंसा करता है तब वह केवल पृथ्वीकाय की ही हिंसा नहीं करता, अपितु उसके आश्रित रहे हुए अनेकानेक अन्यकायिक एवं सकायिक जीवों की भी हिंसा करता है। जल के एक बिन्दु में वैज्ञानिकों ने 36000 जो जीव देखे हैं, वस्तुतः वे जलकायिक नहीं, जलाश्रित त्रस जीव हैं। जलकायिक जीव तो असंख्य होते हैं, जिन्हें वैज्ञानिक अभी नहीं जान सके हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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