________________ अनुवाद किया और हैदराबाद से वे प्रकाशित हुए / तत्पश्चात् संघ में प्रागमों को व्यवस्थित रीति से संपादित करके प्रकाशित करने का मानस बना / पूज्य आत्मारामजी महाराज ने अनेक प्रागमों की अनुवाद सहित व्याख्याएँ की, जो पहले भिन्न-भिन्न सद्गृहस्थों की ओर से प्रकाशित हई और अब प्रात्माराम जैन साहित्य प्रकाशन समिति लुधियाना की ओर से मुद्रण और प्रकाशन कार्य हो रहा है। मुनिश्री फूलचन्दजी म. पुप्फभिक्खु ने दो भागों में मूल बत्तीसों आगमों को प्रकाशित किया। जिनमें कुछ पाठों को बदल दिया गया। इसके बाद पूज्य घासीलालजी महाराज ने हिन्दी, गुजराती और संस्कृत विवेचन सहित प्रकाशन का कार्य किया। इस समय प्रागम प्रकाशन समिति ब्यावर की ओर से भी शुद्ध मूल पाठों सहित हिन्दी अनुवाद के प्रकाशन का कार्य हो रहा है। ___इसके सिवाय महावीर जैन विद्यालय बंबई के तत्वावधान में मूल आगमों का परिष्कार करके शुद्ध पाठ सहित प्रकाशन का कार्य चल रहा है। अनेक प्रागम ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुके हैं। जन विश्वभारती लाडनू की पोर से भी ग्यारह अंग-पागम मुल प्रकाशित हो चके हैं। ___ इस प्रकार से समग्र जैन संघ में आगमों के प्रकाशन के प्रति उत्साह है और मूल पाठों, पाठान्तरों, विभिन्न प्रतियों से प्राप्त लिपिभेद के कारण हुए शब्दभेद, बिषयसूची, शब्दानुक्रमणिका, परिशिष्ट, प्रस्तावना सहित प्रकाशित हो रहे हैं। इससे यह लाभ हो रहा है कि विभिन्न ग्रन्थभंडारों में उपलब्ध प्रतियों के मिलाने का अवसर मिला, खंडित पाठों आदि को फुटनोट के रूप में उद्धृत भी किया जा रहा है / लेकिन इतनी ही जैन आगमों के प्रकाशन को सही दिशा नहीं मानी जा सकती है। अब तो यह आवश्यकता है कि कोई प्रभावक और बहुश्रुत जैनाचार्य देवर्धिगणि क्षमाश्रमण जैसा साहस करके सर्वमान्य, सर्वतः शुद्ध आगमों को प्रकाशित करनेकराने के लिये अग्रसर हो। साथ ही जैन संघ का भी यह उत्तरदायित्व है कि आगममर्मज्ञ मुनिराजों और वयोवृद्ध गृहस्थ विद्वानों के लिये ऐसी अनुकूल परिस्थितियों का सर्जन करे, जिससे वे स्वसुखाय के साथ-साथ परसुखाय अपने ज्ञान को वितरित कर सकें। उनमें ऐसा उल्लास प्राये कि वे सरस्वती के साधक सरस्वती की साधना में एकान्तरूप से अपने को अर्पित कर दें। संभवत: यह स्थिति प्राज न बन सके, लेकिन भविष्य के जैन संघ को इसके लिये कार्य करना पड़ेगा। विश्व में जो परिवर्तन हो रहे हैं, यदि उनके साथ चलना है तो यह कार्य शीघ्र प्रारंभ करना चाहिए। _देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जैन पीठों की स्थापना होती जा रही है और शोधसंस्थान भी स्थापित हो रहे हैं। उनसे जैन साहित्य के संशोधन को प्रोत्साहन मिला है और प्रकाशन भी हो रहा है। यह एक अच्छा कार्य है। अतः उनसे यह अपेक्षा है कि अपने साधनों के अनुरूप प्रतिवर्ष भंडारों में सुरक्षित दोचार प्राचीन ग्रन्थों को मूल रूप में प्रकाशित करने की ओर उन्मुख हों / ऐसा करने से जैन साहित्य की विविध विधाओं का ज्ञान प्रसारित होगा और जैन साहित्य की विशालता, विविधरूपता एवं उपादेयता प्रकट होगी। विज्ञेषु किं बहुना ! जैन स्थानक, ब्यावर (राज.) 305901 -देवकुमार जैन [28] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org