________________ प्रस्तुत संस्करण के अनुवादक पं. मुनि श्री प्रवीणऋषिजी म. हैं, जो प्राचार्यसम्राट् श्री आनन्द ऋषिजी म. के अन्तेवासी हैं / इस अनुवाद के विवेचक संपादक गुरुणांगुरु श्रद्धेय पंडितरत्न श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल हैं। जैन आगमों का आपने अनेक बार अध्ययन-अध्यापन किया है। यही कारण है कि आपने नथ के विवेचन में अभिधेय के प्राशय को स्पष्ट करने के लिये आवश्यक सभी विवरणों को यथाप्रसंग समायोजित कर ग्रंथ के हार्द को सुललित शैली में व्यक्त किया है। इसमें न तो कुछ अप्रासंगिक जोड़ा गया है और न वह कुछ छूट पाया है जो वर्ण्य के प्राशय को स्पष्ट करने के लिये अपेक्षित है। पाठक को स्वतः यह अनुभव होगा कि पंडितजी ने पांडित्यप्रदर्शन न करके स्वान्तःसुखाय लिखा है और जो कुछ लिखा है, उसमें उनकी अनुभूति तदाकार रूप में अवतरित हुई है / संक्षेप में कहें तो निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता कि आपकी भाषाशैली का जो भागीरथी गंगा जैसा सरल प्रवाह है, मनोभावों की उदारता है, वाचाशक्ति का प्रभाव है, वह सब इसमें पुज रूप से प्रस्तुत कर दिया है। इसके सिवाय अधिक कुछ कहना मात्र शब्दजाल होगा, परन्तु इतनी अपेक्षा तो है ही कि पंडितप्रवर अन्य गम्भीर आगमों के आशय का ऐसी ही शैली में सम्पादन कर अपने ज्ञानवद्धत्व के द्वारा जन-जन की ज्ञानवृद्धि के सूत्रधार बनें। __ आशा और विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि प्रागमसाहित्य के क्षेत्र में यह सुरुचिपूर्ण संस्करण यशस्वी और आकर्षक रहेगा। आगमसाहित्य के प्रकाशन की दशा और दिशा उपसंहार के रूप में एतद् विषयक मुख्य बिन्दुओं पर संक्षेप में प्रकाश डालना उपयुक्त होगा। यह तो पूर्व में कहा जा चुका है कि एक समय था जब धर्मग्रन्थ कंठोपकंठ सुरक्षित रखे जाते थे, लिखने का रिवाज न था। लेकिन परिस्थिति के परिवर्तित होने पर लेखन-प्रणाली स्वीकार कर ली गई और जैन आगमों को ताडपत्रादि पर लिपिबद्ध किया गया। जैन आचार्यों का यह परिश्रम अमूल्य एवं अभिनंदनीय रहा कि उनके प्रयासों के फलस्वरूप प्रागम ग्रन्थ किसी न किसी रूप में सुरक्षित रहे इसके बाद कागज पर लिखने का युग पाया / इस युग में आगमों की अनेक प्रतिलिपियां हुई और भिन्नभिन्न ग्राम, नगरों के ग्रन्थभंडारों में सुरक्षित रखी गई। लेकिन इस समय में लिपिकारों की प्रल्पज्ञता आदि के कारण पाठों में भेद हो गये / ऐसी स्थिति में यह निर्णय करना कठिन हो गया कि शुद्ध पाठ कौनसा है ? इसी कारण आचार्यों ने उपलब्ध पाठों के आधार पर अपने-अपने ढंग से व्याख्याएँ की। तत्पश्चात मुद्रणयुग में जैनसंघ का प्रारंभ में प्रयत्न नगण्य रहा। विभिन्न दष्टियों से संघ में शास्त्रों के मद्रण के प्रति उपेक्षाभाव ही नहीं, विरोधभाव भी रहा। लेकिन विदेश में कुछ जर्मन विद्वानों और देश में कुछ प्रगतिशील जैनप्रमुखों ने आगमों को प्रकाशित करने की पहल की। उनमें अजीमगंज (बंगाल) के बाबू धनपतसिंहजी का नाम प्रमुख है। उन्होंने आगमों को टब्बों के साथ मुद्रित कर प्रकाशित कराया। इसके बाद विजयानन्दसूरिजी ने आगम-प्रकाशन कार्य करने वालों को प्रोत्साहित किया। सेठ भीमसिंह माणेक ने भी आगमप्रकाशन की प्रवृत्ति प्रारंभ की और एक दो मागम टीका सहित निकाले। इसी प्रकार अन्यान्य व्यक्तियों की ओर से आगम-प्रकाशन का कार्य प्रारंभ किया गया। उसमें आगमोदय समिति का नाम प्रमुख है। समिति ने सभी आगमों को समयानुकूल और साधनों के अनुरूप प्रकाशित करवाया। __ स्थानकवासी जैन संघ में सर्वप्रथम जीवराज घेलाभाई ने जर्मन विद्वानों द्वारा मुद्रित रोमन लिपि के आगमों को नागरी लिपि में प्रकाशित किया / इसके बाद पूज्य अमोलकऋषिजी ने बत्तीस आगमों का हिन्दी [ 27 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org