________________ भावों की सही अनुभूति की बोधक भाषायोजना रस कहलाती है / इस अपेक्षा से भाषा का विचार करें तो प्रस्तुत ग्रंथ में शृगार, वीर, करुणा, वीभत्स आदि साहित्यिक सभी रसों का समावेश हुआ है। जैसे कि हिसा-ग्रास्रव के कुफलों के वर्णन में वीभत्स और उनका भोग करने वालों के वर्णन में करुण रस की अनुभूति होती है। इसी प्रकार का अनुभव अन्य प्रास्रबों के वर्णन में भी होता है कि प्राणी अपने क्षणिक स्वार्थ की पूर्ति के लिये कितने-कितने वीभत्स कार्य कर बैठते हैं और परिणाम की चिन्ता न कर रुद्रता की चरमता को भी लांघ जाते हैं। लेकिन विपाककाल में बनने वाली उनकी स्थिति करुणता की सीमा भी पार जाती है / पाठक के मन में एक ऐसा स्थायी निर्वेदभाव उत्पन्न हो जाता है कि वह स्वयं के अंतर्जीवन की ओर झांकने का प्रयल करता है। __ अब्रह्मचर्य-आस्रव के वर्णन में शृगाररस से पूरित अनेक गद्यांश हैं / लेकिन उनमें उद्दाम शृगार नहीं है, अपितु विरागभाव से अनुप्राणित है। सर्वत्र यही निष्कर्ष रूप में बताया है कि उत्तम से उत्तम भोग भोगने बाले भी अन्त में कामभोगों से अतृप्त रहते हए ही मरणधर्म को प्राप्त होते हैं। लेकिन अहिंसा आदि पांच संवरों के वर्णन में वीररस की प्रधानता है। प्रात्मविजेताओं की अदीनवृत्ति को प्रभावशाली शब्दावली में जैसा का तैसा प्रकट किया है। सर्वत्र उनकी मनस्विता और मनोबल की सबलता का दिग्दर्शन कराया है। इस प्रकार हम प्रस्तुत आगम को किसी भी कसौटी पर परखें, वाङमय में इसका अनूठा, अद्वितीय स्थान है। साहित्यिक कृति के लिये जितनी भी विशेषतायें होना चाहिये, वे सब इस में उपलब्ध हैं। विद्वान् गीतार्थ रचयिता ने इसकी रचना में अपनी प्रतिभा का पूर्ण प्रयोग किया है और प्रतिपाद्य के प्रत्येक आयाम पर प्रौढ़ता का परिचय दिया है। तत्कालीन आचार-विचार का चित्रण ग्रंथकार ने तत्कालीन समाज के प्राचार-विचार का भी विवरण दिया है। लोकजीवन की कैसी प्रवृत्ति थी और तदनुरूप उनकी कैसी मनोवृत्ति थी, आदि सभी का स्पष्ट उल्लेख किया है। एक ओर उनके प्राचार-विचार का कृष्णपक्ष मुखरित है तो दूसरी ओर उनके शुक्लपक्ष का भी परिचय दिया है / मनोविज्ञानवेत्ताओं के लिये तो इसमें इतनी सामग्री संकलित कर दी गई है कि उससे यह जाना जा सकता है कि मनोवृत्ति की कौनसी धारा मनुष्य की किस प्रवृत्ति को प्रभावित करती है और उससे किस आचरण की ओर मुड़ा जा सकता है। प्रस्तुत संस्करण वैसे तो आस्रव और संवर की चर्चा अन्य प्रागमों में भी हुई है, किन्तु प्रश्नव्याकरणसूत्र तो इनके वर्णन का ही ग्रंथ है / जितना व्यवस्थित और क्रमबद्ध वर्णन इसमें किया गया है, उतना अन्यत्र नहीं हुआ है। यही कारण है कि प्राचीन आचार्यों ने इस पर टीकायें लिखी, इसके प्रतिपाद्य विषय के प्राशय को सरल सुबोध भाषा में स्पष्ट करने का प्रयास किया और वे इसमें सफल भी हुए हैं। उन्होंने नथ को समासबहुल शैली के आशय को स्पष्ट किया है, प्रत्येक शब्द में गभित गूढ़ रहस्य को प्रकट किया है। उनके इस उपकार के लिये वर्तमान ऋणी रहेगा, लेकिन आज साहित्यसृजन की भाषा का माध्यम बदल जाने से वे व्याख्याग्रन्थ भी सर्वजन-सुबोध नहीं रहे। इसीलिये वर्तमान की हिन्दी आदि लोकभाषाओं में अनेक संस्करण प्रकाशित हए। उन सबकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। परन्तु यहाँ प्रस्तुत संस्करण के सम्बन्ध में ही कुछ प्रकाश डाल रहे हैं। [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org