________________ ब्रह्मचर्य की पाँच भावनाएँ] [227 वाले, रास गाने या रासलीला करने वाले, शुभाशुभ बतलाने वाले, लंख-ऊँचे वांस पर खेल करने वाले, मंख-चित्रमय पट्ट लेकर भिक्षा मांगने वाले, तूण नामक वाद्य बजाने वाले, वीणा बजाने वाले, तालाचर---एक प्रकार के तमाशबीन-इन सब की क्रीडाएँ, गायकों के नाना प्रकार के मधुर ध्वनि वाले गीत एवं मनोहर स्वर और इस प्रकार के अन्य विषय, जो तप, संयम और ब्रह्मचर्य का घात-- उपघात करने वाले हैं, उन्हें ब्रह्मचर्यपालक श्रमण को देखना नहीं चाहिए, इन से सम्बद्ध वार्तालाप नहीं करना चाहिए और पूर्वकाल में जो देखे---सुने हों, उनका स्मरण भी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार पूर्वरत-पूर्वक्रीडितविरति समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्तवाला, मैथुनविरत, जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य से गुप्त-सुरक्षित होता है / पंचम भावना-स्निग्ध सरस भोजन-त्याग १५२--पंचमगं—आहार-पणीय-णिद्ध-भोयण-विवज्जए संजए सुसाहू व वगय-खीर-दहि-सप्पिणवणीय-तेल्ल-गुल-खंड-मच्छंडिग-महु-मज्ज-मंस-खज्जग-विगइ-परिचित्तकयाहारे ण दप्पणं ण बहुसो ण णिइगंण सायसूपाहियं ण खद्ध, तहा भोत्तव्वं जहा से जायामाया य भवइ, ण य भवइ विन्भमो ण भंसणा य धम्मस्स / एवं पणीयाहार-विरइ-समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण-विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। १५२–पाँचवी भावना-सरस आहार एव स्निग्ध-चिकनाई वाले भोजन का त्यागी संयमशोल सुसाधु दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, गुड़, खांड, मिसरी, मधु, मद्य, मांस, खाद्यक---पकवान और विगय से रहित आहार करे / वह दर्पकारक--इन्द्रियों में उत्तेजना उत्पन्न करने वाला आहार न करे। दिन में बहुत बार न खाए और न प्रतिदिन लगातार खाए / न दाल और व्यंजन की अधिकता वाला और न प्रभूत-प्रचुर भोजन करे / साधु उतना ही हित-मित आहार करे जितना उसकी संयम-यात्रा का निर्वाह करने के लिए आवश्यक हो, जिससे मन में विभ्रम--चंचलता उत्पन्न न हो और धर्म (ब्रह्मचर्यव्रत) से च्युत न हो। ___ इस प्रकार प्रणीत-ग्राहार की विरति रूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला, ब्रह्मचर्य की आराधना में अनुरक्त चित्त वाला और मैथुन से विरत साधु जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से सुरक्षित होता है / विवेचन-चतुर्थ संवरद्वार ब्रह्मचर्य महाव्रत की पाँच भावनाओं का उल्लिखित पाठों में प्रतिपादन किया गया है। पूर्व में बतलाया जा चुका है कि ब्रह्मचर्यव्रत महान है / उसको महिमा अद्भुत और अलौकिक है। उसका प्रभाव अचिन्त्य और अकल्प्य है। वह सब प्रकार की ऋद्धियों और सिद्धियों का प्रदाता है / ब्रह्मचर्य के अखण्ड पालन से आत्मा की सुषुप्त शक्तियाँ जागृत हो जाती हैं और आत्मा सहज आन्तरिक तेज से जाज्वल्यमान बन जाता है। किन्तु इस महान् व्रत की जितनी अधिक महिमा है. उतना ही परिपूर्ण रूप में पालन करना भी कठिन है। उसका अागमोक्त रूप से सम्यक प्रकार से पालन किया जा सके, इसी अभिप्राय से, साधकों के पथप्रदर्शन के लिए उसकी पाँच भावनाएँ यहाँ प्रदर्शित की गई हैं / वे इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org