________________ 226]. [प्रश्नध्याकरणसूत्र : श्रु. 2, अ. 4 १५०--ब्रह्मचर्यव्रत की तीसरी भावना स्त्री के रूप को देखने के निषेध-स्वरूप है। वह इस प्रकार है-नारियों के हास्य को, विकारमय भाषण को, हाथ आदि की चेष्टाओं को, विप्रेक्षणकटाक्षयुक्त निरीक्षण को, गति-चाल को, विलास और क्रीडा को, विब्वोकित---अनुकूल-इष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर अभिमानपूर्वक किया गया तिरस्कार, नाटय, नृत्य, गीत, वादित वीणा आदि वाद्यों के बादन, शरीर की प्राकृति, गौर श्याम आदि वर्ण, हाथों, पैरों एवं नेत्रों का लावण्य, रूप, यौवन, स्तन, अधर—प्रोष्ठ, वस्त्र, अलंकार और भूषण ललाट की विन्दी आदि को तथा उसके गोपनीय अंगों को, एवं स्त्रीसम्बन्धी अन्य अंगोपांगों या चेष्टाओं को जिनसे ब्रह्मचर्य, तप तथा संयम का घात--उपघात होता है, उन्हें ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाला मुनि न नेत्रों से देखे, न मन से सोचे और न वचन से उनके सम्बन्ध में कुछ बोले और न पापमय कार्यों की अभिलाषा करे। इस प्रकार स्त्रीरूपविरति–समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि ब्रह्मचर्य में अनुरक्त चित्त वाला, इन्द्रियविकार से विरत, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से गुप्त-सुरक्षित होता है / चतुर्थ भावना-पूर्वभोग-चिन्तनत्याग १५१-चउत्थं पुन्धरय-पुन्व-कीलिय-पुत्व-संगंथगंथ-संथुया जे ते आवाह-विवाह-चोल्लगेसु य तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य सिंगारागारचारवेसाहिं हावभावपललिय-विक्खेव-विलास-सालिणीहिं अणुकूल-पेम्मिगाहि सद्धि अणुभूया सयणसंपओगा, उउसुहवरकुसुम-सुरभि-चंदण-सुगंधियर-वास-धूवसुहफरिस-वस्थ-भूसण-गुणोववेया, रमणिज्जाओज्जगेय-पउर-णड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिग-वेलंबगकहग-पग-लासग-आइवखग-लंख-मंख-तूणइल्लतुंब-वीणिय-तालायर-पकरणाणि य बहूणि महुरसरगोय-सुस्सराई, अण्णाणि य एवमाइयाणि तव-संजम-बंभचेर-घाओवघाइयाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं ण ताई समण लम्भा दर्छ, ण कहेउं, ण वि सुमरिलं, जे एवं पुन्वरय-पुन्चकोलिय-विरइ-समिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण-विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। १५१---(चौथी भावना में पूर्वकाल में भोगे भोगों के स्मरण के त्याग का विधान किया गया है।) वह इस प्रकार है—पहले (गृहस्थावस्था में) किया गया रमण—विषयोपभोग, पूर्वकाल में की गई क्रीड़ाएँ-बूत आदि क्रीडा, पूर्वकाल के सग्रन्थ-- श्वसुरकुल–ससुराल सम्बन्धी जन, ग्रन्थ-साले आदि से सम्बन्धित जन, तथा संश्रुत--पूर्व काल के परिचित जन, इन सब का स्मरण नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त द्विरागमन, विवाह, चूडाकर्म-शिशु का मुण्डन तथा पर्वतिथियों में, यज्ञोंनागपूजा आदि के अवसरों पर, शृगार के प्रागार जैसी सजी हुई, हाव-मुख की चेष्टा, भाव-चित्त के अभिप्राय, प्रललित-लालित्ययुक्त कटाक्ष, विक्षेप-ढीली चोटी, पत्रलेखा, आँखों में अंजन आदि शृगार, विलास हाथों, भौंहों एवं नेत्रों की विशेष प्रकार की चेष्टा---इन सब से सुशोभित, अनुकूल प्रेम वाली स्त्रियों के साथ अनुभव किए हुए शयन आदि विविध प्रकार के . कामशास्त्रोक्त प्रयोग, ऋतु के अनुकूल सुख प्रदान करने वाले उत्तम पुष्पों का सौरभ एवं चन्दन की सुगन्ध, पूर्ण किए हुए अन्य उत्तम वासद्रव्य, धूप, सुखद स्पर्श वाले वस्त्र, आभूषण-इनके गुणों से युक्त, रमणीय आतोद्यवाद्यध्वनि, गायन, प्रचुर नट, नर्तक-नाचने वाले, जल्ल--रस्सी पर खेल दिखलाने वाले, मल्लकुश्तीबाज, मौष्टिक मुक्केबाज, विडम्बक-विदूषक, कथा-कहानी सुनाने वाले, प्लवक उछलने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org