________________ 228] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 2, अ. 4 1. विविक्तशयनासन, 2. स्त्रीकथा का परित्याग, 3. स्त्रियों के रूपादि को देखने का परिवर्जन, 4. पूर्वकाल में भुक्त भोगों के स्मरण से विरति, 5. सरस बलवर्द्धक आदि पाहार का त्याग / प्रथम भावना का आशय यह है कि ब्रह्मचारी को ऐसे स्थान में नहीं रहना या टिकना चाहिये जहाँ नारी जाति का सामीप्य हो---संसर्ग हो, जहाँ स्त्रियाँ उठती-बैठती हों, बातें करती हों, और जहाँ वेश्याओं का सान्निध्य हो। ऐसे स्थान पर रहने से ब्रह्मचर्यव्रत के भंग का खतरा रहता है, क्योंकि ऐसा स्थान चित्त में चंचलता उत्पन्न करने वाला है। दूसरी भावना स्त्रीकथावर्जन है / इसका अभिप्राय यह है कि ब्रह्मचर्य के साधक को स्त्रियों के बीच बैठ कर वार्तालाप करने से बचना चाहिए / यही नहीं, स्त्रियों सम्बन्धी कामुक चेष्टाओं का, विलास, हास्य आदि का, स्त्रियों की वेशभूषा आदि का, उनके रूप-सौन्दर्य, जाति, कुल, भेद-प्रभेद का तथा विवाह आदि का वर्णन करने से भी बचना चाहिए / इस प्रकार की कथनी भी मोहजनक होती है / दूसरा कोई इस प्रकार की बातें करता हो तो उन्हें सुनना नहीं चाहिए और न ही ऐसे विषयों का मन में चिन्तन करना चाहिए। तीसरी भावना का सम्बन्ध मुख्यतः चक्षुरिन्द्रिय के साथ है। जो दृश्य काम-राग को बढ़ाने वाला हो, मोहजनक हो, आसक्ति जागृत करने वाला हो, ब्रह्मचारी उससे बचता रहे / स्त्रियों के हास्य, बोल-चाल, विलास, क्रीडा, नृत्य, शरीर, प्राकृति, रूप-रंग, हाथ-पैर, नयन, लावण्य, यौवन आदि पर तथा उनके स्तन, गुह्य अंग, वस्त्र, अलंकार एवं टीकी आदि भूषणों पर ब्रह्मचारी को दृष्टिपात नहीं करना चाहिए / जैसे सूर्य के विम्ब पर दृष्टि पड़ते ही तत्काल उसे हटा लिया जाता है-टकटकी लगा कर नहीं देखा जाता, उसी प्रकार नारी पर दृष्टिपात हो जाए तो तत्क्षण उसे हटा लेना चाहिए ! ऐसा करने से नेत्रों के द्वारा मन में मोहभाव उत्पन्न नहीं होता ! तात्पर्य यह / तप, संयम और ब्रह्मचर्य को अंशतः अथवा पूर्णतः विघात करने वाले हों, उनसे ब्रह्मचारी को सदैव बचते रहना चाहिए। चौथी भावना में पूर्व काल में अर्थात् गृहस्थावस्था में भोगे हुए भोगों के चिन्तन के वर्जन परेणा की गई है / बहुत से साधक ऐसे होते हैं जो गृहस्थदशा में दाम्पत्यजीवन यापन करने के पश्चात् मुनिव्रत अंगीकार करते हैं। उनके मस्तिष्क में गृहस्थजीवन की घटनाओं के संस्कार या स्मरण संचित होते हैं। वे संस्कार यदि निमित्त पाकर उभर उठे तो चित्त को विभ्रान्त कर देते हैं, चित्त को विकृत बना देते हैं और कभी-कभी मुनि अपने कल्पना-लोक में उसी पूर्वावस्था में पहुँचा हा अनुभव करने लगता है / वह अपनी वर्तमान स्थिति को कुछ समय के लिए भूल जाता है / यह स्थिति उसके तप, संयम एवं ब्रह्मचर्य का विघात करने वाली होती है / अतएव ब्रह्मचारी पुरुष को ऐसे प्रसंगों से निरन्तर बचना चाहिए, जिनसे काम-वासना को जागृत होने का अवसर मिले / पाँचवीं भावना आहार सम्बन्धी है / ब्रह्मचर्य का आहार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। बलवर्द्धक, दर्पकारी-इन्द्रियोत्तेजक पाहार ब्रह्मचर्य का विघातक है। जिह्वा इन्द्रिय पर जो पूरी तरह नियंत्रण स्थापित कर पाता है, वही निरतिचार ब्रह्मव्रत का पाराधन करने में समर्थ होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org