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________________ उपसंहार] [211 इन या इस प्रकार से अन्य जिन स्थानों में साधु निवास करे वह निर्दोष होना चाहिए। साधु के निमित्त से उसमें किसी प्रकार का झाड़ना-पौंछना, लीपना-पोतना आदि आरम्भ-समारम्भ न किया जाए। द्वितीय भावना का आशय यह है कि निर्दोष उपाश्रय की अनुमति प्राप्त हो जाने पर भी उसमें रखे हुए घास, पयाल, आदि की साधु को आवश्यकता हो तो उसके लिए पृथक रूप से उसके स्वामी की अनुज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। ऐसा नहीं मानना चाहिए कि उपाश्रय की अनुमति ले लेने से उसके भीतर की वस्तुओं की भी अनुमति प्राप्त कर ली। जो भी वस्तु ग्रहण करनी हो वह निर्दोष और दत्त ही होनी चाहिए। तीसरी भावना शय्यापरिकर्मवर्जन है। इसका अभिप्राय है कि साधु के निमित्त से पीठ, फलक आदि बनवाने के लिए वृक्षों का छेदन-भेदन नहीं होना चाहिए। उपाश्रय में ही शय्या की गवेषणा करनी चाहिए / वहाँ की भूमि विषम हो तो उसे समतल नहीं करना चाहिए / वायु अधिक आए या कम आए, इसके लिए उत्कंठित होना नहीं चाहिए / उपाश्रय में डांस-मच्छर सताएँ तो चित्त में क्षोभ उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए---उस समय में समभाव रहना चाहिए / डांस-मच्छर भगाने के लिए आग या धूम का प्रयोग करना नहीं चाहिए आदि / चौथी भावना का सम्बन्ध प्राप्त आहारादि के उपभोग के साथ है। साधु जब अन्य साधुओं के साथ आहार करने बैठे तो सरस आहार जल्दी-जल्दी न खाए, अन्य साधुओं को ठेस पहुँचे, इस प्रकार न खाए / साधारण अर्थात् अनेक साधुओं के लिए सम्मिलित भोजन का उपभोग समभाव- . पूर्वक, अनासक्त रूप से करे / पाँचवीं भावना सार्मिक विनय है / समान प्राचार-विचार वाले साधु, साधु के लिए सार्मिक कहलाते हैं। बीमारी आदि की अवस्था में अन्य के द्वारा जो उपकार किया जाता है, वह उपकरण है / उपकरण एवं तपश्चर्या की पारणा के समय विनय का प्रयोग करना चाहिए, अर्थात् इच्छाकारादि देकर, जबर्दस्ती न करते हुए एकत्र या अनेकत्र गुरु की आज्ञा से भोजन करना चाहिए। वाचना, परिवर्तन एवं पृच्छा के समय विनय-प्रयोग का प्राशय है वन्दनादि विधि करना / देते-लेते समय विनयप्रयोग का अर्थ है—गुरु की आज्ञा प्राप्त करके देना-लेना। उपाश्रय से बाहर निकलते और उपाश्रय में प्रवेश करते समय विनयप्रयोग का अर्थ आवश्यकी और नषेधिको करना आदि है / अभिप्राय यह कि प्रत्येक क्रिया आगमादेश के अनुसार करना ही यहाँ विनयप्रयोग कहा गया है। उपसंहार १४०–एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ, सुप्पणिहियं, एवं जाव पंचहि वि कारणेहि मण-वयण काय-परिरविखएहि णिच्चं आमरणंतं च एस जोगो पयत्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अछिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सुद्धो सवजिणमणुण्णाओ। एवं तइयं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं आराहियं आणाए अणुपालियं भव। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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