________________ 210] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : थु. 2, अ. 3 इस प्रकार सम्मिलित भोजन के लाभ में समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गतिहेतु पापकर्म से विरत होता है और दत्त एवं अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। पंचमी भावना-सामिक-विनय १३९-पंचमगं साहम्मिए विणओ पउंजियव्यो, उवगरणपारणासु विणओ पउंजियध्वो, वायणपरियट्टणासु विणओ पउंजियन्वो, दाणगहणपुच्छणासु विणओ पउंजियव्यो, णिक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियन्यो, अण्णेसु य एवमाइसु बहुसु कारणसएसु विणओ पउंजियव्वो। विणओ वि तवो, तवो वि धम्मो तम्हा विणओ पजियन्वो गुरुसु सासु तवस्सीसु य / ___एवं विणएण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरणं करण-कारावण-पावकम्मविरए दत्तमगुण्णाय उग्गहरुई। १३६-पाँचवीं भावना सार्मिक-विनय है / सार्मिक के प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए। (रुग्णता आदि की स्थिति में) उपकार और तपस्या की पारणा-पूत्ति में विनय का प्रयोग करना चाहिए / बाचना अर्थात् सूत्रग्रहण में और परिवर्तना अर्थात् गृहीत सूत्र की पुनरावृत्ति में विनय का प्रयोग करना चाहिए। भिक्षा में प्राप्त अन्न आदि अन्य साधुओं को देने में तथा उनसे लेने में और विस्मृत अथवा शंकित सूत्रार्थ सम्बन्धी पृच्छा करने में विनय का प्रयोग करना चाहिए। उपाश्रय से बाहर निकलते और उसमें प्रवेश करते समय विनय का प्रयोग करना चाहिए / इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों में (कार्यों के प्रसंग में) विनय का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि विनय भी अपने आप में तप है और तप भी धर्म है / अतएव विनय का आचरण करना चाहिए। विनय किनका करना चाहिए? गुरुजनों का, साधुओं का और (तेला आदि) तप करने वाले तपस्वियों का / इस प्रकार विनय से युक्त अन्तःकरण वाला साधू अधिकरण–पाप के करने और करवाने से विरत तथा दत्त-अनुज्ञात अवग्रह में रुचिवाला होता है / शेष पाठ का अर्थ पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। विवेचन-तृतीय व्रत की पाँच भावनाएँ (सूत्राङ्क 135 से 136 तक) प्रतिपादित की गई हैं। प्रथम भावना में निर्दोष उपाश्रय को ग्रहण करने का विधान किया गया है / आधुनिक काल में उपाश्रय शब्द से एक विशिष्ट प्रकार के स्थान का बोध होता है और सर्वसाधरण में वही अर्थ अधिक प्रचलित है / किन्तु वस्तुतः जिस स्थान में साधुजन ठहर जाते हैं, वही स्थान उपाश्रय कहलाता है / यहाँ ऐसे कतिपय स्थानों का उल्लेख किया गया है जिनमें साधु ठहरते थे / वे स्थान हैं-देवकुलदेवालय, सभाभवन, प्याऊ, मठ, वृक्षमूल, बाग-बगीचे, गुफा, खान, गिरिगुहा, कारखाने, उद्यान, यानशाला (रथादि रखने के स्थान), कुप्यशाला-घरगृहस्थी का सामान रखने की जगह, मण्डप, शून्यगृह, श्मशान, पर्वतगृह, दुकान आदि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org