________________ 212] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. 2, अ. 3 एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्ध सिद्ध सिद्धवरसासणमिणं आधवियं सुदेसियं पसत्थं / / तइयं संवरदारं समत्तं तिबेमि / / १४०-इस प्रकार (आचरण करने) से यह तीसरा संवरद्वार समीचीन रूप से पालित और सुरक्षित होता है। इस प्रकार यावत् तीर्थकर भगवान् द्वारा कथित है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है / शेष शब्दों का अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए। / तृतीय संवरद्वार समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org