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________________ 202] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. 2, अ. 3 भावस्तेन है अर्थात् दूसरे के ज्ञानादि गुण के आधार पर अपने आपको ज्ञानी प्रकट करता है, जो शब्दकर है अर्थात् रात्रि में उच्चस्वर से स्वाध्याय करता या बोलता है अथवा गृहस्थों जैसी भाषा बोलता है, जो गच्छ में भेद उत्पन्न करने वाले कार्य करता है, जो कलहकारी, वैरकारी और असमाधिकारी है, जो शास्त्रोक्त प्रमाण से सदा अधिक भोजन करता है, जो सदा वैर बाँध रखने वाला है, सदा क्रोध करता रहता है, ऐसा पुरुष इस अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता है। विवेचन–अस्तेयनत की आराधना की विधि विस्तारपूर्वक यहाँ बतलाई गई है। प्रारंभ में कहा गया है कि अस्तेयव्रत के आराधक को कोई भी वस्तु, चाहे वह मूल्यवान् हो या मूल्यहीन हो, बहुत हो या थोड़ी हो, छोटी हो या मोटी हो, यहाँ तक कि धूल या कंकर जैसी तुच्छतर ही क्यों न हो, बिना दी हुई या अननुज्ञात ग्रहण नहीं करना चाहिए / ग्राह्य वस्तु का दाता अथवा अनुज्ञाता भी वही होना चाहिए जो उसका स्वामी हो। व्रत की पूर्ण आराधना के लिए यह नियम सर्वथा उपयुक्त ही है / मगर प्रश्न हो सकता है कि साधु जब मार्ग में चल रहा हो, ग्राम, नगर आदि से दूर जंगल में हो और उसे अचानक तिनका जैसी किसी वस्तु की आवश्यकता हो जाए तो वह क्या करे ? उत्तर यह है कि शास्त्र में अनुज्ञा देने वाले पाँच बतलाए गए हैं-(१) देवेन्द्र (2) राजा (3) गृहपति-~मण्डलेश, जागीरदार या ठाकुर (4) सागारी (गृहस्थ) और (5) सार्मिक / पूर्वोक्त परिस्थिति में तृण, कंकर आदि तुच्छ-मूल्यहीन वस्तु की यदि आवश्यकता हो तो साधु देवेन्द्र की अनुज्ञा से उसे ग्रहण कर सकते हैं। इस प्राशय को व्यक्त करने के लिए मूल पाठ में इस व्रत या संवर के लिए वत्तमणुण्णायसंवरो (दत्त-अनुज्ञातसंवर) शब्द का प्रयोग किया गया है, केवल 'दत्तसंवर' नहीं कहा गया। इसका तात्पर्य यही है कि जो पीठ, फलक आदि वस्तु किसी गृहस्थ के स्वामित्व की हो उसे स्वामी के देने पर ग्रहण करना चाहिए और जो धूलि या तिनका जैसी तुच्छ वस्तुओं का कोई स्वामी नहीं होता जो सर्व साधारण के लिए मुक्त हैं, उन्हें देवेन्द्र की अनुज्ञा से ग्रहण किया जाए तो वे अनुज्ञात हैं। उनके ग्रहण से व्रतभंग नहीं होता / ' अदत्तादान के विषय में कुछ अन्य शंकाएं भी उठाई जाती हैं, यथा शंका-साधु कर्म और नोकर्म का जो ग्रहण करता है, वह अदत्त है। फिर व्रतभंग क्यों नहीं होता? समाधान-जिसका देना और लेना संभव होता है, उसी वस्तु में स्तेय-चौर्य-चोरी का व्यवहार होता है। कर्म-नोकर्म के विषय में ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता, अत: उनका ग्रहण अदत्तादान नहीं है। शंका–साधु रास्ते में या नगरादि के द्वार में प्रवेश करता है, वह अदत्तादान क्यों नहीं है ? समाधान-रास्ता और नगरद्वार आदि सामान्य रूप से सभी के लिए मुक्त हैं, साधु के लिए 1. भगवती–श. 16. उ. 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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