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________________ ये अस्तेय के आराधक नहीं] [201 अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पत्त-कंबल-दंडग-रयहरण-णिसिज्ज-चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पायछणाइ भायण-भंडोवहि-उवगरणं परपरिवाओ परस्स दोसो परववएसेणं जं च गिण्हइ, परस्स णासेइ जं च सुकयं, दाणस्स य अंतराइयं दाणविप्पणासो पिसुण्णं चेव मच्छरियं च / ये अस्तेय के पाराधक नहीं जे वि य पीढ-फलग-सिज्जा-संथारंग-वत्थ-पाय-कंबल-मुहपोत्तिय-पाय-पुछणाइ-भायण-भंडोवहिउवगरणं असंविभागी, असंगहरुई, तवतेणे य वइतेणे य रूवतेणे य आयारे चेव भावतेणे य, सहकरे झंझकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकरे सया अप्पमाणभोई सययं अणुबद्धवेरे य णिच्चरोसी से तारिसए णाराहए वयमिणं / १३१--कोई भी वस्तु, जो खलिहान में पड़ी हो, या खेत में पड़ी हो, या जंगल में पड़ी हो, से कि फल हो, फल हो. छाल हो. प्रवाल हो, कन्द, मल, तण, काष्ठ या कंकर आदि हो, वह थोड़ी हो या बहुत हो, छोटी हो या मोटी हो, स्वामी के दिये विना या उसकी प्राज्ञा प्राप्त किये विना ग्रहण करना नहीं कल्पता। घर और स्थंडिलभूमि भी आज्ञा प्राप्त किये विना ग्रहण करना उचित नहीं है। तो फिर साधु को किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए? यह विधान किया जाता है कि प्रतिदिन अवग्रह की आज्ञा लेकर ही उसे लेना चाहिए। तथा अप्रीतिकारक घर में प्रवेश वजित करना चाहिए अर्थात् जिस घर के लोगों में साधु के प्रति अप्रीति हो, ऐसे घरों में किसी वस्तु के लिए प्रवेश करना योग्य नहीं है 1 अप्रीतिकारक के घर से आहार-पानी तथा पीठ, फलक-पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंबल, दण्ड-विशिष्ट कारण से लेने योग्य लाठी और पादपोंछन -पैर साफ करने का वस्श्रखण्ड आदि एवं भाजन—पात्र, भाण्ड-मिट्टी के पात्र तथा उपधि-वस्त्रादि उपकरण भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। साधु को दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिए, दूसरे को दोष नहीं देना चाहिए या किसी पर द्वेष नहीं करना चाहिए / (आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, रुग्ण अथवा शंक्ष आदि) दूसरे के नाम से जो कोई वस्तु ग्रहण करता है तथा जो उपकार को या किसी के सुकृत को छिपाता है नष्ट करता है, जो दान में अन्तराय करता है, अर्थात् दिये जाने वाले दान में किसी प्रकार से विघ्न डालता है, जो दान का विप्रणाश करता अर्थात् दाता के नाम को छिपाता है. जो पैशन्य करता-चुगली खाता है और मात्सर्य- ईर्षा-द्वेष करता है, वह सर्वज्ञ भगवान की प्राज्ञा से विरुद्ध करता है, अतएव इनसे बचना चाहिए।) जो भी पीठ--पीढ़ा, पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, प्रासन, चोलपट्रक, मुखवस्त्रिका और पादप्रोञ्छन आदि, पात्र, मिट्टी के पात्र--भाण्ड और अन का जो प्राचार्य आदि सार्मिकों में संविभाग (उचित रूप से विभाग) नहीं करता, वह अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता। जो असंग्रहरुचि है अर्थात् एषणीय पीठ, फलक आदि गच्छ के लिए आवश्यक या उपयोगी उपकरणों का जो स्वार्थी (प्रात्मभरी) होने के कारण संग्रह करने में रुचि नहीं रखता, जो तपस्तेन है अर्थात् तपस्वी न होने पर भो तपस्वी के रूप में अपना परिचय देता है, वचनस्तेन -वचन का चोर है, जो रूपस्तेन है अर्थात् सुविहित साधु न होने पर भी जो सुविहित साधु का वेष धारण करता है, जो प्राचार का चोर है अर्थात् प्राचार से दूसरों को धोखा देता है और जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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