________________ ये अस्तेय के आराधक नहीं] [203 भी उसी प्रकार अनुज्ञात हैं जैसे दूसरों के लिए / अतएव यहाँ भी अदत्तादान नहीं समझना चाहिए / अथवा जहाँ प्रमादभाव है वहीं अदत्तादान का दोष होता है। रास्ते आदि में प्रवेश करने वाले साध में प्रमत्तयोग नहीं होता, अतएव वह अदत्तादानी नहीं है। तात्पर्य यह है कि जहाँ संक्लेशभावपूर्वक प्रवृत्ति होती है वहीं अदत्तादान होता है, भले ही वह बाह्य वस्तु को ग्रहण करे अथवा न करे / ' अभिप्राय यह है कि जिन वस्तुओं में देने और लेने का व्यवहार संभव हो और जहाँ सक्लिष्ट परिणाम के साथ बाह्य वस्तु को ग्रहण किया जाए, वहीं अदत्तादान का दोष लागू होता है। जो अस्वामिक या सस्वामिक वस्तु सभी के लिए मुक्त है या जिसके लिए देवेन्द्र आदि की अनुज्ञा ले ली गई है, उसे ग्रहण करने अथवा उसका उपयोग करने से अदत्तादान नहीं होता। साधु को दत्त और अनुज्ञात वस्तु ही ग्राह्य होती है। सूत्र में असंविभागी और असंग्रहरुचि पदों द्वारा व्यक्त किया गया है कि गच्छवासी साधु को गच्छवर्ती साधुओं की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना चाहिए। उसे स्वार्थी नहीं होना चाहिए / आहारादि शास्त्रानुसार जो भी प्राप्त हो उसका उदारतापूर्वक यथोचित संविभाग करना चाहिए / किसी दूसरे साधु को किसी उपकरण की या अमुक प्रकार के आहार की आवश्यकता हो और वह निर्दोष रूप से प्राप्त भी हो रहा हो तो केवल स्वार्थीपन के कारण उसे ग्रहण में अरुचि नहीं करनी चाहिए। गच्छवासी साधुनों को एक दुसरे के उपकार और अनुग्रह में प्रसन्नता अनुभव करनी चाहिये। उल्लिखित पाठ में तपस्तेन अर्थात् 'तप का चोर' आदि पदों का प्रयोग किया गया है, उनका उल्लेख दशवैकालिक सूत्र में भी पाया है / स्पष्टीकरण इस प्रकार है तपःस्तेन-किसी स्वभावतः कृशकाय साधु को देखकर किसी ने पूछा-महाराज, अमुक गच्छ में मासखमण की तपस्या करने वाले सुने हैं, क्या आप वही मासक्षपक हैं ? यह सुन कर वह कृशकाय साधु मासक्षपक न होते हुए भी यदि अपने को मासक्षपक कह देता है तो वह तप का चोर है / अथवा धूर्ततापूर्वक उत्तर देता है—'भई, साधु तो तपस्वी होते ही हैं, उनका जीवन ही तपोमय है।' इस प्रकार गोलमोल उत्तर देकर वह तपस्वी न होकर भी यह धारणा उत्पन्न कर देता है कि यही मासक्षपक तपस्वी है, किन्तु निरहंकार होने के कारण स्पष्ट नहीं कह रहे हैं। ऐसा साधु तपःस्तेन कहलाता है। वचःस्तेन-इसी प्रकार किसी वाग्मी-कुशल व्याख्याता साधु का यश छल के द्वारा अपने ऊपर प्रोढ लेना-धूर्तता से अपने को वाग्मी प्रकट करने या कहने वाला वचस्तेन साधु कहलाता है। ___रूपस्तेन--किसी सुन्दर रूपवान् साधु का नाम किसी ने सुना है। वह किसी दूसरे रूपवान् साधु को देख कर पूछता है क्या अमुक रूपवान् साधु आप ही हैं ? वही साधु न होने पर भी वह साधु यदि हाँ कह देता है अथवा छलपूर्वक गोलमोल उत्तर देता है, जिससे प्रश्नकर्ता की धारणा बन जाए कि यह वही प्रसिद्ध रूपवान् साधु है, तो ऐसा कहने वाला साधु रूप का चोर है / 1. सर्वार्थसिद्धिटीका अ.७, सूत्र 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org