________________ 198] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 2, अ. 2 १२८-इस प्रकार (पूर्वोक्त रीति से) सत्य नामक संवरद्वार यथासमय अंगीकृत, पालित, शोधित-निरतिचार आचरित या शोभाप्रदायक, तीरित--अन्त तक पार पहुँचाया हुअा, कीतितदूसरों के समक्ष आदरपूर्वक कथित, अनुपालित–निरन्तर सेवित और भगवान की आज्ञा के अनुसार आराधित होता है। इस प्रकार भगवान् ज्ञातमुनि-महावीर स्वामी ने इस सिद्धवरशासन का कथन किया है. विशेष प्रकार से विवेचन किया है। यह तर्क और प्रमाण से सिद्ध है, सप्रतिष्ठित किया गया है, भव्य जीवों के लिए इसका उपदेश किया गया है, यह प्रशस्त-कल्याणकारी--मंगलमय है। विवेचन-उल्लिखित पाठों में प्रस्तुत प्रकरण में कथित अर्थ का उपसंहार किया गया है / सुगम होने से इनके विवेचन की आवश्यकता नहीं है। // द्वितीय संवरद्वार समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org