________________ उपसंहार] [197 पाँचवी भावना है परिहास-परिहार या हास्यप्रत्याख्यान / सरलभाव से यथातथ्य वचनों के प्रयोग से हँसी-मजाक का रूप नहीं बनता। हास्य के लिए सत्य को विकृत करना पड़ता है / नमक-मिर्च लगाकर बोलना होता है। किसी के सद्गुणों को छिपा कर दुर्गुणों को उघाड़ा करना होता है। अभिप्राय यह है कि सर्वांश या अधिकांश में सत्य को छिपा कर असत्य का आश्रय लिए विना हँसी-मजाक नहीं होता। इससे सत्यव्रत का विघात होता है और अन्य को पीड़ा होती है। अतएव सत्यव्रत के संरक्षण के लिए हास्यवृत्ति का परिहार करना आवश्यक है। जो साधक हास्यशील होता है, साथ ही तपस्या भी करता है, वह तप के फलस्वरूप यदि देवगति पाता है तो भी किल्विष या प्राभियोगिक जैसे निम्नकोटि के देवों में जन्म पाता है। वह देवगणों में अस्पृश्य चाण्डाल जैसी अथवा दास जैसी स्थिति में रहता है। उसे उच्च श्रेणी का देवत्व प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार हास्यवृत्ति महान् फल को भी तुच्छ बना देती है। संयमी के लिए मौनवृत्ति का अवलम्बन करना सर्वोत्तम है। जो इस वृत्ति का निर्वाह भावपूर्वक कर सकते हैं, उनके लिए मौन रह कर संयम की साधना करना हितकर है। किन्तु आजीवन इस उत्सर्ग मार्ग पर चलना प्रत्येक के लिए सम्भव नहीं है। संघ और तीर्थ के अभ्युदय एवं हित की दृष्टि से यह वांछनीय भी नहीं है। फिर भी भाषा का प्रयोग करते समय आगम में उल्लिखित निर्देशों का ध्यान रख कर समितिपूर्वक जो वचनप्रयोग करते हैं, उनका सत्यमहावत अखण्डित रहता है। उनके चित्त में किसी प्रकार का संक्लेशभाव उत्पन्न नहीं होता। ते अपनी आराधना में सफलता प्राप्त करते हैं / उनके लिए मुक्ति का द्वार उद्घाटित रहता है। उपसंहार १२७–एवमिणं संवरस्स दारं सम्म संवरियं होइ सुप्पणिहियं, इमेहि पंचहि वि कारणेहं मण-वयण-काय-परिरक्खिएहि णिच्चं आमरणंतं च एस जोगो यव्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सव्वजिणमणुण्णाओ। १२७--इस प्रकार मन, वचन और काय से पूर्ण रूप से सुरक्षित-सुसेवित इन पांच भावनात्रों से संवर का यह द्वार-सत्यमहाव्रत सम्यक् प्रकार से संवृत-आचरित और सुप्रणिहितस्थापित हो जाता है / अतएव धैर्यवान् तथा मतिमान् साधक को चाहिए कि वह आस्रव का निरोध करने वाले, निर्मल (अकलुष), निश्छिद्र-कर्म-जल के प्रवेश को रोकने वाले, कर्मबन्ध के प्रवाह से रहित, संक्लेश का अभाव करने वाले एवं समस्त तीर्थकरों द्वारा अनुज्ञात इस योग को निरन्तर जीवनपर्यन्त आचरण में उतारे / १२८-एवं बिइयं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहियं भवइ / एवं गायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्ध सिद्ध सिद्धवरसासणमिणं आवियं सुदेसियं पसत्थं / ॥बिइयं संवरदारं समत्तं // तिबेमि // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org