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________________ [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. 2, अ. 2 का प्रयोग करना अनुवीचिभाषण कहलाता है। तत्त्वार्थभाष्य में भी सत्यव्रत की प्रथम भावना के लिए 'अनुवीचि' भाषण शब्द का ही प्रयोग किया गया है। अतएव भलीभाँति विचार कर बोलने के साथ-साथ भाषा सम्बन्धी अन्य दोषों से बचना भी इस भावना के अन्तर्गत है / _सत्यव्रत का निरतिचार रूप से पालन करने के लिए क्रोधवत्ति पर विजय प्राप्त करना भी आवश्यक है / क्रोध ऐसी वृत्ति है जो मानवीय विवेक को विलुप्त कर देती है और कुछ काल के लिए पागल बना देती है। क्रोध का उद्रेक होने पर सत्-असत् का भान नहीं रहता और असत्य बोला जाता है। कहना चाहिए कि क्रोध के अतिशय आवेश में जो बोला जाता है, वह असत्य ही होता है / अतएव सत्यमहाव्रत की सुरक्षा के लिए क्रोधप्रत्याख्यान अथवा अक्रोधवृत्ति परमावश्यक है। तीसरी भावना लोभत्याग या निर्लोभता है। लोभ से होने वाली हानियों का मूल पाठ में ही विस्तार से कथन कर दिया गया है। शास्त्र में लोभ को समस्त सदगुणों का विनाशक कहा है। जब मनुष्य लोभ की जकड में फँस जाता है तो कोई भी दुष्कर्म करना उसके लिए कठिन नहीं होता। अतएव सत्यव्रत की सुरक्षा चाहने वाले को निर्लोभवृत्ति धारण करनी चाहिए। किसी भी वस्तु के प्रति लालच उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए। चौथी भावना भय-प्रत्याख्यात है। भय मनुष्य की बड़ी से बड़ी दुर्बलता है। भय मनुष्य के मस्तिष्क में छिपा हुआ विषाणु है जो उसे कातर, भीरु, निर्बल, सामर्थ्य शून्य और निष्प्राण बना देता है। भय वह पिशाच है जो मनुष्य की वीर्यशक्ति को पूरी तरह सोख जाता है। भय वह वत्ति है जिसके कारण मनुष्य अपने को निकम्मा, नालायक और नाचीज समझने लगता है। शास्त्रकार ने कहा है कि भयभीत पुरुष को भूत-प्रेत ग्रस्त कर लेते हैं / बहुत बार तो भय स्वयं ही भूत बन जाता है और उस मनोविनिर्मित भूत के आगे मनुष्य घुटने टेक देता है / भय के भूत के प्रताप से कइयों को जीवन से हाथ धोना पड़ता है और अनेकों का जीवन बेकार बन जाता है। भीरु मनुष्य स्वयं भीत होता है, साथ ही दूसरों के मस्तक में भी भय का भूत उत्पन्न कर देता है / भीरु पुरुष स्वयं सन्मार्ग पर नहीं चल सकता और दूसरों के चलने में भी बाधक बनता है / मनुष्य के मन में व्याधि, रोग, वृद्धावस्था, मरण आदि के अनेक प्रकार के भय विद्यमान रहते हैं। मूल पाठ में निर्देश किया गया है कि रोगादि के भय से डरना नहीं चाहिए / भय कोई औषध तो है नहीं कि उसके सेवन से रोगादि उत्पन्न न हों! क्या बुढ़ापे का भय पालने से बुढ़ापा आने से रुक जाएगा? मरणभय के सेवन से मरण टल जाएगा? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यही नहीं, प्रत्युत भय के कारण न आने वाला रोग भी आ सकता है, न होने वाली व्याधि हो सकती है, विलम्ब से आने वाले वार्धक्य और मरण को भय आमंत्रण देकर शीघ्र ही निकट ला सकता है / ऐसी स्थिति में भयभीत होने से हानि के अतिरिक्त लाभ क्या है। ___ सारांश यह है कि भय की भावना आत्मिक शक्ति के परिबोध में बाधक है, साहस को तहस-नहस करने वाली है, समाधि की विनाशक है और संक्लेश को उत्पन्न करने वाली है। वह सत्य पर स्थिर नहीं रहने देती / अतएव सत्य भगवान् के आराधक को निर्भय होना चाहिए। 1. तत्वार्थभाष्य अ. 7 2. लोहो सब्यविणासणो--दशवैकालिकसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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