________________ तृतीय अध्ययन : दत्तानुज्ञात द्वितीय संवरद्वार के निरूपण के पश्चात् अचौर्य नामक तृतीय संवरद्वार का निरूपण प्रस्तुत है। सत्य के पश्चात् अचौर्य के विवेचन के टीकाकार ने दो कारण बतलाए हैं--प्रथम यह कि सूत्रक्रम के अनुसार अब अस्तेय का निरूपण ही संगत है, दूसरा असत्य का त्यागी वही हो सकता है जो अदत्तादान का त्यागी हो। अदत्तादान करने वाले सत्य का निर्वाह नहीं कर सकते। अतएव सत्यसंवर के अनन्तर अस्तेयसंवर का निरूपण करना उचित है। अस्तेय का स्वरूप १२९–जंबू ! दत्तमणुण्णाय-संवरो णाम होइ तइयं सुव्वया ! महव्वयं गुणव्ययं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणंततण्हाणुगयमहिच्छमणवयणकलुसआयाणसुणिग्गहियं सुसंजमिय-मण-हत्थ-पायणिहुयं णिग्गंथं णिट्ठियं णिरत्तं णिरासवं णिउभयं विमुत्तं उत्तमणरवसभपवरबलवगसुविहियजणसम्मतं परमसाहुधम्मचरणं / 126 हे शोभन व्रतों के धारक जम्बू ! तीसरा संवरद्वार 'दत्तानुज्ञात' नामक है। यह महान् व्रत है तथा यह गुणव्रत-इहलोक और परलोक संबंधी उपकारों का कारणभूत भी है। यह परकीय द्रव्य-पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, अर्थात् इस व्रत में परायी वस्तुओं के अपहरण का त्याग किया जाता है। यह व्रत अपरिमित-सीमातीत और अनन्त तृष्णा से अनुगत महा-अभिलाषा से युक्त मन एवं वचन द्वारा पापमय परद्रव्यहरण का भलीभाँति निग्रह करता है। इस व्रत के प्रभाव से मन इतना संयमशील बन जाता है कि हाथ और पैर परधन को ग्रहण करने से विरत हो जाते हैं। यह बाह्य और आभ्यन्तर अन्थियों से रहित है, सब धर्मों के प्रकर्ष के पर्यन्तवर्ती है / सर्वज्ञ भगवन्तों ने इसे उपादेय कहा है। यह प्रास्रव का निरोध करने वाला है। निर्भय है-इसका पालन करने वाले को राजा या शासन आदि का भय नहीं रहता और लोभ उसका स्पर्श भी नहीं करता। यह प्रधान बलशालियों तथा सुविहित साधुजनों द्वारा सम्मत है, श्रेष्ठ साधुओं का धर्माचरण है। विवेचन-तृतीय संवरद्वार के प्रारंभ में सुधर्मा स्वामी ने अपने प्रधान अन्तेवासी को 'सुव्रत' कह कर सम्बोधित किया है। अपने सदाचरण की गुरुजन द्वारा प्रशंसा सुन कर शिष्य के हृदय में उल्लास होता है और वह सदाचरण में अधिक उत्साह के साथ अग्रसर होता है। इस प्रकार यह सम्बोधन शिष्य के उत्साहवर्द्धन के लिए प्रयुक्त हुआ है। ___ अस्तेय महावत है / जीवन पर्यन्त तण जैसे अत्यन्त तुच्छ पदार्थ को भी प्रदत्त या अननुज्ञात ग्रहण न करना अपने आप में एक महान् साधना है। इसका निर्वाह करने में आने वाली बड़ी-बड़ी कठिनाइयों को समभाव से, मन में तनिक भी मलीनता लाये विना, सहन कर लेना और वह भी स्वेच्छा से, कितना कठिन है ! अतएव इसे महाव्रत कहना सर्वथा समुचित ही है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org