________________ पंचमी भावना : आदान-निक्षेपणसमिति] [183 116 –पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम संवरद्वार स्पृष्ट होता है, पालित होता है, शोधित होता है, तीर्ण-पूर्ण रूप से पालित होता है, कीत्तित, पाराधित और (जिनेन्द्र भगवान् की) आज्ञा के अनुसार पालित होता है। ऐसा भगवान् ज्ञातमुनि महावीर ने प्रज्ञापित किया है एवं प्ररूपित किया है। यह सिद्धवरशासन प्रसिद्ध है, सिद्ध है, बहुमूल्य है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है / विवेचन–यहाँ प्रथम अहिंसा-संवरद्वार का उपसंहार किया गया है। इस संवरद्वार में जो-जो कथन किया गया है, उसी प्रकार से इसका समग्र रूप में परिपालन किया जाता है / पाठ में पाए कतिपय विशिष्ट पदों का स्पष्टीकरण इस भाँति है-- फासिय-यथासमय विधिपूर्वक स्वीकार किया गया। पालित–निरन्तर उपयोग के साथ प्राचरण किया गया / सोहिय-इस पद के संस्कृत रूप दो होते हैं-शोभित और शोधित / व्रत के योग्य दूसरे पात्रों को दिया गया शोभित कहलाता है और अतिचार-रहित पालन करने से शोधित कहा जाता है। तीरिय-किनारे तक पहुँचाया हुआ। कित्तिय--दूसरों को उपदिष्ट किया हुआ। आराहिय-पूर्वोक्त रूप से सम्पूर्णता को प्राप्त / ' // प्रथम संवरद्वार समाप्त / / १-अभयदेवटीका, पृ. 113. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org