________________ 182] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. 2, अ. 1 के मन में दोनता या हीनता का विचार नहीं आना चाहिए। यह तथ्य प्रकट करने के लिए मूलपाठ में 'अदीणो' पद का प्रयोग किया गया है / पाँचवीं भावना आदान-निक्षेपणसमिति है / साधु अपने शरीर पर भी ममत्वभाव नहीं रखते, किन्तु 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' उक्ति के अनुसार संयम-साधना का निमित्त मान कर उसकी रक्षा के लिए अनेक उपकरणों को स्वीकार करते हैं / इन उपकरणों को उठाते समय एवं रखते समय यतना रखनी चाहिए / यथासमय यथाविधि उनका प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन भी अप्रमत्त रूप से करते रहना चाहिए। इस प्रकार अहिंसा महाव्रत की इन भावनाओं के यथावत् परिपालन से व्रत निर्मल, निरतिचार बनता है। निरतिंचार व्रत का पालक साधु ही सुसाधु है, वही मोक्ष की साधना में सफलता प्राप्त करता है। ११८--एवमिणं संवरस्स दारं सम्म संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहि पंचहि पि कारणेहि मण-वयण-कायपरिरक्खिएहिं णिच्चं आमरणतं च एस जोगो यन्वो धिइमया मइमया अणासयो अकलसो अच्छिद्दो असंकि लिट्ठो सुद्धो सव्व जिणमणुण्णाओ। ११८-इस प्रकार मन, वचन और काय से सुरक्षित इन पाँच भावना रूप उपायों से यह अहिंसा-संवरद्वार पालित-सुप्रणिहित होता है। अतएव धैर्यशाली और मतिमान् पुरुष को सदा जीवनपर्यन्त सम्यक् प्रकार से इसका पालन करना चाहिए। यह अनास्रव है, अर्थात् नवीन कर्मों के आस्रव को रोकने वाला है, दीनता से रहित है, कलुष-मलीनता से रहित और अच्छिद्र-अनास्रवरूप है, अपरिस्रावी-कर्मरूपी जल के आगमन को अवरुद्ध करने वाला है, मानसिक संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात-अभिमत है / विवेचन-हिंसा आस्रव का कारण है तो उसकी विरोधी अहिंसा आस्रव को रोकने वाली हो, यह स्वाभाविक ही है। अहिंसा के पालन में दो गुणों की अपेक्षा रहती है--धैर्य की और मति—विवेक की / विवेक के अभाव में अहिंसा के वास्तविक प्राशय को समझा नहीं जा सकता और वास्तविक आशय को समझे विना उसका आचरण नहीं किया जा सकता है। विवेक विद्यमान हो और अहिंसा के स्वरूप को वास्तविक रूप में समझ भी लिया जाए. मगर साधक में यदि धैर्य न हो तो भी उस कठिन है / अहिंसा के उपासक को व्यवहार में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं, संकट भी झेलने पड़ते हैं, ऐसे प्रसंगों पर धीरज ही उसे अपने व्रत में अडिग रख सकता है। अतएव पाठ में 'धिइमया मइमया' इन दो पदों का प्रयोग किया गया है / ११९-एवं पढमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तौरियं किट्टियं आराहियं आणाए अणुपालियं भवइ / एवं णायमुणिया भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्ध सिद्ध सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं / // पढमं संवरदारं समत्तं / तिबेमि / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org