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________________ पंचमी भावना : आदान-निक्षेपणसमिति] [181 पाषाण या लूंठ से टकरा जाने से चोट लग सकती है, गिर पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में प्रार्त-ध्यान उत्पन्न हो सकता है / उसका समाधिभाव नष्ट हो सकता है / यह आत्मविराधना है / अतएव स्वपरविराधना से बचने के लिए इधर-उधर दृष्टि न डालते हुए, वार्तालाप में चित्त न लगाते हुए गन्तव्य मार्ग पर ही दृष्टि रखनी चाहिए / आगे की चार हाथ प्रमाण भूमि को देखते हुए एकाग्र भाव से चलना चाहिए। दूसरी भावना मनःसमिति है। अहिंसा भगवती की पूरी तरह आराधना करने के लिए मन के अप्रशस्त व्यापारों से निरन्तर बचते रहना चाहिए। मन प्रात्मा का सूक्ष्म किन्तु अत्यन्त शक्तिशाली साधन है / वह कर्मबन्ध का भी और कर्मनिर्जरा का भी प्रधान कारण है / उस पर नियन्त्रण रखने के लिए निरन्तर उसकी चौकसी रखनी पड़ती है / जरा-सी सावधानी हटी और वह कहीं का कहीं दौड़ जाता है / अत: सावधान रहकर उसकी देख-भाल करते रहने की आवश्यकता है। किसी भी प्रकार का पापमय, अधार्मिक या अप्रशस्त विचार उत्पन्न न हो, इसके लिए सदा धर्ममय विचार में संलग्न रखना चाहिए। तीसरी वचन-भावना में वाणी-प्रयोग सम्बन्धी विवेक को जगाए रखने की मुख्यता है / वधबन्धकारी, क्लेशोत्पादक, पीडाजनक अथवा कठोर वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए / साधु के लिए मौन सर्वोत्तम है किन्तु वचनप्रयोग आवश्यक होने पर हित-मित-पथ्य वचनों का ही प्रयोग करना चाहिए। चौथी भावना आहार-एषणा है / आहार की प्राप्ति साधु को भिक्षा द्वारा ही होती है। अतएव जैनागमों में भिक्षा सम्बन्धी विधि-निषेध बहुत विस्तारपूर्वक प्रतिपादित किए गए हैं / भिक्षा सम्बन्धी दोषों का उल्लेख पहले किया जा चुका है / आहार पकाने में हिंसा अवश्यंभावी है। किन्तु इस हिंसा से पूरी तरह बचाव भी हो और भिक्षा भी प्राप्त हो जाए, ऐसा मार्ग भगवान् ने बतलाया है। इसी प्रयोजन से प्राहार सम्बन्धी उदगमदोष, उत्पादनादोष आदि का निरूपण किया गया है। उन सब दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करना मुख्यत: परविराधना से बचने के लिए आवश्यक है। . साधु को कभी सरस या नीरस आहार भी मिलता है। कदाचित् अनेक घरों में भ्रमण करने पर भी आहार का लाभ नहीं होता। ऐसे प्रसंगों में मन में रागभाव अथवा द्वेषभाव का उदय हो सकता है / दीनता की भावना भी आ सकती है / मूलपाठ में स्पष्ट किया गया है कि भिक्षा के लाभ, अलाभ अथवा अल्पलाभ प्रादि का प्रसग उपस्थित होने पर साधु को अपना समभाव कायम रखना चाहिए। ___ हम परान्नजीवी हैं, दूसरों के दिये पाहार पर हमारी जीविका निर्भर है' इस प्रकार के विचार को निकट भी नहीं फटकने देना चाहिए। दोनता-हीनता का यह भाव साधु का तेजोवध करता है और तेजोविहीन साधु प्रवचन की प्रभावना नहीं कर सकता, श्रोताओं को प्रभावित नहीं कर सकता / जिस प्रकार गृहस्थों से भिक्षा ग्रहण करके साधु उपकृत होता है, उसी प्रकार गृहस्थ भी भिक्षा देकर उपकृत होता है। वह सुपात्रदान के महान् इहलोक और परलोक सबधी सुफ अनुगृहीत होता है। वह उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करता है। शालिभद्र और सुबाहुकुमार जैसे पुण्यशाली महापुरुषों ने सुपात्रदान के फलस्वरूप ही लौकिक एवं लोकोत्तर ऋद्धि-विभूति प्राप्त की थी। अतएव साधु, गृहस्थों से भिक्षा लेकर उनका भी महान् उपकार करता है। ऐसी स्थिति में साधु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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