________________ 174] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्र. 2, अ.१ (8) कीत-साधु के निमित्त खरीद कर लाया आहार लेना। (9) प्रामित्य-साधु के लिए उधार लिया हुआ आहार लेना। (10) परिवतित-साधु के लिए आहार में अदल-बदल करना, दूसरे से अदलाबदली करना। (11) अभिहत साधु के सामने-उपाश्रय आदि में आहार लाना। (12) उद्भिन्न-साधु को देने के लिए किसी पात्र को खोलना-लाख आदि के लेप को हटाना। (13) मालापहृत-निसरणी आदि लगा कर, उस पर चढ़ कर, ऊपर से नीचे उतार कर दिया जाने वाला आहार / (14) आच्छेद्य-दुर्बलों से या आश्रित जनों से छीन कर साधु को आहार देना। (15) अनिसृष्ट-जिस वस्तु के अनेक स्वामी हों, उसे उन सब की अनुमति के विना देना। (16) अध्यवपूर-माधुओं का आगमन जान कर अपने लिए बनने वाले भोजन में अधिक सामग्री मिला देना--अधिक रसोई तैयार करना। उद्गम के इन सोलह दोषों का निमित्त दाता होता है, अर्थात् दाता के कारण ये दोष होते हैं / (2) सोलह उत्पादनादोष--- (1) धात्री-धायमाता जैसे कार्य-बच्चे को खेलाना आदि करके आहार प्राप्त करना / (2) दूती-गुप्त अथवा प्रकट संदेश पहुँचा कर आहार प्राप्त करना / (3) निमित्त-शुभ-अशुभ निमित्त बतलाकर आहार प्राप्त करना / (4) आजीव-प्रकट या अप्रकट रूप से अपनी जाति या कुल का परिचय देकर भिक्षा प्राप्त करना / (5) वनीपक-जैन, बौद्ध, वैष्णव आदि में जहाँ जिसका आदर हो, वहाँ वैसा ही अपने को बतलाकर अथवा दीनता दिखलाकर आहार प्राप्त करना। (6) चिकित्सा–वैद्यवृत्ति से पाहार प्राप्त करना / (7) क्रोध-क्रोध करके या गहस्थ को शाप आदि का भय दिखाकर ग्राहार प्राप्त करना। (8) मान-अभिमान से अपने को प्रतापी, तेजस्वी वगैरह बतला कर आहार प्राप्त करना। माया-छल करकं आहार प्राप्त करना / (10) लोभ-आहार में लोभ करना, आहार के लिए जाते समय लालचक्श ऐसा निश्चय करके जाना कि आज तो अमुक वस्तु ही लाएँगे और उस वस्तु के न मिलने पर उसके लिए भटकना। (11) पूर्व-पश्चात् संस्तव-पाहार देने से पहले या पश्चात् दाता की प्रशंसा करना, उसका गुणगान करना / (12) विद्या-देवी जिसकी अधिष्ठात्री हो और जप या हवन से जिसकी सिद्धि हो, उसे विद्या कहते हैं / ऐसी विद्या के प्रयोग से आहारलाभ करना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org