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________________ आहार को निर्दोष विधि] [175 (13) मन्त्र-पुरुषप्रधान अक्षर-रचना को मंत्र कहते हैं, जिसका जप करने मात्र से सिद्धि प्राप्त हो जाए। ऐसे मंत्र के प्रयोग से आहार प्राप्त करना / (14) चूर्ण-अदृश्य करने वाले चूर्ण-सुरमा आदि का प्रयोग करके भिक्षालाभ करना / (15) योग-पैर में लेप करने आदि द्वारा सिद्धियाँ बतला करके आहार प्राप्त करना / (16) मूलकर्म-गर्भाधान, गर्भपात आदि भवभ्रमण के हेतुभूत पापकृत्य मूल कहलाते हैं / ऐसे कृत्य बतला कर आहार प्राप्त करना। _ये सोलह उत्पादना दोष कहलाते हैं। ये दोष साधु के निमित्त से लगते हैं / निर्दोष भिक्षा प्राप्त करने के लिए इनसे भी बचना आवश्यक है। १११-णवि हीलणाए, ण वि णिदणाए, ण वि गरहणाए, ण वि हीलण-णिदण-गरहणाए भिक्खं गवेसियव्वं / ण विभेसणाए, ण वि तज्जणाए, ण वि तालणाए, ण वि भेसण-तज्जण-तालणाए भिक्खं गवेसियव्वं / ण वि गारवेणं, ण वि कुहणयाए, ण वि वणीमयाए, ण वि गारव-कुहण-वणीमयाए भिक्खं गवेसियव्वं / ण वि मित्तयाए, ण वि पत्थणाए, ण वि सेवणाए, ण वि मित्त-पत्थण-सेवणाए भिक्खं गवेसियव्वं / अण्णाए अगढिए अदुठे अदीणे अविमणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए णिरए। १११-(पूर्वोक्त वन्दन, मानन एवं पूजन से विपरीत) न तो गृहस्थ की हीलना करकेजाति आदि के आधार पर बदनामी करके, न निन्दना--देय पाहार प्रादि अथवा दाताके दोष को प्रकट करके और न गर्दा करके-अन्य लोगों के समक्ष दाता के दोष प्रकट करके तथा हीलना, निन्दना एवं गर्हा-तीनों न करके भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए / इसी तरह साधु को भय दिखला कर, तर्जना करकेडाट कर या धमकी देकर और ताडना करके थप्पड़-मुक्का मार कर भी भिक्षा नहीं ग्रहण करना चाहिए और यह तीनों-भय-तर्जना-ताडना करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए / ऋद्धि, रस और साता के गौरव-अभिमान से भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए, न अपनी दरिद्रता दिखा कर, मायाचार करके या क्रोध करके, न भिखारी की भाँति दीनता दिखा कर भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए और न यह तीनों—गौरव-क्रोध-दीनता दिखा कर भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए / मित्रता प्रकट करके, प्रार्थना करके और सेवा करके भी अथवा यह तीनों करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए। किन्तु अज्ञात रूप से अपने स्वजन, कुल, जाति आदि का परिचय न देते हुए, अगद्ध-आहार में प्रासक्ति-मूर्छा से रहित होकर, आहार और आहारदाता के प्रति द्वेष न करते हुए, अदीन-दैन्यभाव से मुक्त रह कर, भोजनादि न मिलने पर मन में उदासी न लाते हए, अपने प्रति हीनता-करुणता का भाव न रखते हुए दयनीय न होकर, अविषादी-विषाद-रहित वचन-चेष्टा रख कर, निरन्तर मन-वचन-काय को धर्मध्यान में लगाते हुए, यत्न-प्राप्त संयमयोग में उद्यम, अप्राप्त संयम योगों की प्राप्ति में चेष्टा, विनय के आचरण और क्षमादि के गुणों के योग से युक्त होकर साधु को भिक्षा की गवेषणा में निरत-तत्पर होना चाहिए। विवेचन-उल्लिखित पाठ में भी साधु की भिक्षाशुद्धि की विधि का प्रतिपादन किया गया है। शरीर धर्मसाधना का प्रधान प्राधार है और आहार के अभाव में शरीर टिक नहीं सकता। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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