________________ आहार की निर्दोष विधि] [173 (2) प्रक्षित-देते समय हाथ, पात्र या आहार सचित्त पानी आदि से लिप्त होना / (3) निक्षिप्त-सचित्त पर रक्खो अचित्त वस्तु ग्रहण करना। (4) पिहित–सचित्त से ढंकी वस्तु लेना। (5) संहत-किसी पात्र में से दोषयुक्त वस्तु पृथक् करके उसी पात्र से दी जाने वाली भिक्षा ग्रहण करना / (6) दायक-बालक आदि अयोग्य दाता से भिक्षा लेना, किन्तु गृहस्वामी स्वयं बालक से दिलाए तो दोष नहीं है। (7) उन्मिश्र-सचित्त अथवा सचित्तमिश्रित से मिला हुआ लेना / (5) अपरिणत-जिसमें शस्त्र पूर्ण रूप से परिणत न हुआ हो—-जो पूर्ण रूप से अचित्त न हुआ हो, ऐसा आहार लेना। (9) लिप्त-तत्काल लीपी हुई भूमि पर से भिक्षा लेना / (10) दित—जो आंशिक रूप से नीचे गिर या टपक रहा हो, ऐसा आहार लेना। (1) सोलह उद्गम-दोष (1) आधाकर्म -किसी एक-अमुक साधु के निमित्त से षट्काय के जीवों की विराधना करके किसी वस्तु को पकाना प्राधाकर्म कहलाता है / यह दोष चार प्रकार से लगता है-(१) प्राधाकर्म दोष से दूषित पाहार का सेवन करना (2) आधाकर्मी आहार के लिए निमंत्रण स्वीकार करना (3) प्राधाकर्मी आहार का सेवन करने वालों के साथ रहना (4) प्राधाकर्मी आहारसेवी की प्रशंसा करना। (2) औद्दे शिक-साधारण रूप से भिक्षुत्रों के लिए तैयार किया हुआ आहारादि औद्देशिक कहलाता है / यह दो प्रकार से होता है--प्रोध से और विभाग से / अपने लिए बनती हुई रसोई में भिक्षुकों के लिए कुछ अधिक बनाना अोष है और विवाह आदि के अवसर पर भिक्षुकों के लिए कुछ भाग अलग निकाल रखना विभाग कहा जाता है। प्राधाकर्मी आहार किसी विशिष्टअमुक एक साधु के उद्देश्य से और प्रौद्देशिक सामान्य रूप से किन्हीं भी साधुओं के लिए बनाया गया होता है। यही इन दोनों में अन्तर है / (3) पूतिकर्म --निर्दोष आहार में दूषित पाहार का अंश मिला हो तो वह पूतिकर्म दोष से दूषित होता है। (4) मिश्रजात---अपने लिए और साधु के लिए तैयार किया गया आहार मिश्रजातदोषयुक्त कहलाता है। (5) स्थापना–साधु के लिए अलग रखा हुअा अाहार लेना स्थापनादोष है। (6) प्राभूतिका-साधु को प्राहार देने के निमित्त से जीमनवार के समय को आगे-पीछे करना / (7) प्रादुष्करण-अन्धेरे में रक्खी हुई वस्तु को लाने के लिए उजाला करके या अन्धकार में से प्रकाश में लाया आहार लेना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org