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________________ परिग्रह पाप का कटुफल] [155 एसो सो परिग्गहो पंचमो उ णियमा णाणामणिकणगरयण-महरिह एवं जाव इमस्स मोक्खवरमोत्तिमम्गस्स फलहभूओ।। चरिमं अहम्मदारं समत्तं / त्ति बेमि // ६७--परिग्रह में आसक्त प्राणी परलोक में और इस लोक में (सुगति से, सन्मार्ग से और सुख-शान्ति से) नष्ट-भ्रष्ट होते हैं / अज्ञानान्धकार में प्रविष्ट होते हैं। तीव्र मोहनीयकर्म के उदय से मोहित मति वाले, लोभ के वश में पड़े हुए जीव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर पर्यायों में तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्थाओं में यावत्' चार गति वाले संसार-कानन में परिभ्रमण करते हैं / परिग्रह का यह इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी फल-विपाक अल्प सुख और अत्यन्त दुःख वाला है। महान्---घोर भय से परिपूर्ण है, अत्यन्त कर्भ-रज से प्रगाढ है--गाढ कर्मबन्ध का कारण है, दारुण है, कठोर है और असाता का हेतु है। हजारों वर्षों में अर्थात् बहुत दीर्घ काल में इससे छुटकारा मिलता है / किन्तु इसके फल को भोगे विना छुटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार ज्ञातकुलनन्दन महात्मा वीरवर (महावीर) जिनेश्वर देव ने कहा है / अनेक प्रकार की चन्द्रकान्त आदि मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों तथा बहुमूल्य अन्य द्रव्यरूप यह परिग्रह मोक्ष के मार्गरूप मुक्ति--निर्लोभता के लिए अर्गला के समान है / इसप्रकार यह अन्तिम प्रास्रवद्वार समाप्त हुआ। 1. यावत् शब्द से गृहीत पाठ और उसके अर्थ के लिए देखिए सूत्र 91. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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