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________________ 154 ] [ प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. 1, अ. 5 71. सजीव-निर्जीव-सजीव को निर्जीव और निर्जीव को सजीव जैसा दिखाना / 72. शकुनिरुत-पक्षियों की बोली पहचानना / चौसठ महिलागुण-(१) नृत्यकला (2) औचित्यकला (3) चित्रकला (4) वादित्र (5) मंत्र (6) तंत्र (7) ज्ञान (8) विज्ञान (8) दण्ड (10) जलस्तम्भन (11) गीतगान (12) तालमान (13) मेघवृष्टि (14) फलाकृष्टि (15) आरामरोपण (16) आकारगोपन (17) धर्मविचार (18) शकुनविचार (19) क्रियाकल्पन (20) संस्कृतभाषण (21) प्रसादनीति (22) धर्मनीति (23) वाणीवृद्धि (24) सुवर्णसिद्धि (25) सुरभितैल (26) लीलासंचारण (27) गज-तुरंगपरीक्षण (28) स्त्री-पुरुषलक्षण (26) स्वर्ण-रत्नभेद (30) अष्टादशलिपि ज्ञान (31) तत्कालबुद्धि (32) वस्तुसिद्धि (33) वैद्यकक्रिया (34) कामक्रिया (35) घटभ्रम (36) सार परिश्रम (37) अंजनयोग (38) चूर्णयोग (36) हस्तलाघव (40) वचनपाटव (41) भोज्यविधि (42) वाणिज्यविधि (43) मुखमण्डन (44) शालिखण्डन (45) कथाकथन (46) पुष्पग्रथन (47) वक्रोक्तिजल्पन (48) काव्यशक्ति (46) स्फारवेश (50) सकलभाषाविशेष (51) अभिधानज्ञान (52) आभरणपरिधान (53) नृत्योपचार (54) गृहाचार (55) शाठ्यकरण (56) परनिराकरण (57) धान्यरधन (58) केशबन्धन (56) वीणादिनाद (60) वितण्डावाद (61) अंकविचार (62) लोकव्यवहार (63) अन्त्याक्षरी और (64) प्रश्नप्रहेलिका। ये पुरुषों की बहत्तर और महिलाओं की चौसठ कलाएँ हैं। बहत्तर कलाओं का नामोल्लेख आगमों में मिलता है, महिलागुणों का विशेष नामोल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता / इनसे प्राचीनकालीन शिक्षापद्धति एवं जीवनपद्धति का अच्छा चित्र हमारे समक्ष उभर कर आता है। आगमों से यह भी विदित होता है कि ये कलाएँ सूत्र से, अर्थ से और प्रयोग से सिखलाई जाती थीं। परिग्रह के लिए किये जाने वाले अन्यान्य कार्यों के विषय में अधिक उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं। मूल पाठ और अर्थ से ही उन्हें समझा जा सकता है। सारांश यह है कि परिग्रह के लिए मनुष्य आजीवन विविध कार्य करता है, उसके लिए पचता है, मगर कभी तृप्त नहीं होता और अधिकाधिक परिग्रह के लिए तरसता-तरसता ही मरण के शिकंजे में फँसता है। परिग्रह पाप का कटुफल ___ ९७–परलोगम्मि य गट्ठा तमं पविट्ठा महयामोहमोहियमई तिमिसंधयारे तसथावरसुहुमबायरेसु पज्जत्तमपज्जत्तग-साहारण-पत्तेयसरीरेसु य अण्डय-पोयय-जराज्य-रसय-संसेइम-सम्मुच्छिमउम्भिय-उववाइएसु य परय-तिरिय-देव-मणुस्सेसु जरामरणरोगसोगबहुलेसु पलिओवमसागरोवमाई अणाइयं अणवयग्गं दोहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियति जीवा लोहवससण्णिविट्ठा / एसो सो परिग्गहस्स फल विवागो इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महरूमओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहि मुच्चइ ग अवेयइत्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति / एवमाहंतु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधिज्जो कहेसी य परिग्गहस्स फलविवागं / Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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