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________________ आस्वद्वार का उपसंहार उपसंहार : गाथाओं का अर्थ ९८-एएहि पंचहि असंवरेहि,' रयमादिणित्तु अणुसमयं / चउविहगइपेरंतं, अणुपरियति संसारे // 1 // १८-इन पूर्वोक्त पाँच पास्रवद्वारों के निमित्त से जीव प्रतिसमय कर्मरूपी रज का संचय करके चार गतिरूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं / ९९-सव्वगइपक्खंदे, काहिति अणंतए अकयपुण्णा। जे य ण सुगंति धम्मं, सोऊण य जे पमायंति // 2 // ६६-जो पुण्यहीन प्राणी धर्म को श्रवण नहीं करते अथवा श्रवण करके भी उसका आचरण करने में प्रमाद करते हैं, वे अनन्त काल तक चार गतियों में गमनागमन (जन्म-मरण) करते रहेंगे। १००–अणुसिटुं वि बहुविहं, मिच्छदिट्ठिया जे गरा अहम्मा। बद्धणिकाइयकम्मा, सुगंति धम्मं ग य करेंति // 3 // १००--जो पुरुष मिथ्यादष्टि हैं, अधार्मिक हैं, जिन्होंने निकाचित (अत्यन्त प्रगाढ) कर्मों का बन्ध किया है, वे अनेक तरह से शिक्षा पाने पर भी, धर्म का श्रवण तो करते हैं किन्तु उसका आचरण नहीं करते। १०१–कि सक्का काउं जे, णेच्छह ओसहं मुहा पाउं / जिणवयणं गुणमहुरं, विरेयणं सव्वदुक्खाणं // 4 // १०१--जिन भगवान् के वचन समस्त दुःखों का नाश करने के लिए गुणयुक्त मधुर विरेचनऔषध हैं, किन्तु निस्वार्थ भाव से दी जाने वाली इस औषध को जो पीना ही नहीं चाहते, उनके लिए क्या किया जा सकता है ! १०२-पंचेव य उज्झिऊणं, पंचेव य रक्खिऊणं भावेणं / . कम्मरय-विप्पमुक्कं, सिद्धिवर-मणुत्तरं जंति // 5 // १०२.जो प्राणी पाँच (हिंसा आदि आस्रवों) को त्याग कर और पाँच (अहिंसा आदि संवरों) की भावपूर्वक रक्षा करते हैं, वे कर्म-रज से सर्वथा रहित होकर सर्वोत्तम सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करते हैं। // आस्रवद्वार नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त / / 1. 'आसवेहि' पाठ भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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