________________ पाप का परामर्श देने वाले] का घात करते हैं। इसी प्रकार चिड़ीमारों को पक्षियों का पता बताते हैं, मच्छोमारों को मछलियों आदि जलचर जीवों के स्थान एवं घात का उपाय बतला कर प्रस / चोरों, जेबकतरों आदि को चोरी आदि के स्थान-उपाय आदि बतलाते हैं। आजकल जेब काटना सिखाने के लिए अनेक नगरों में प्रशिक्षणशालाएं चलती हैं, ऐसा सुना जाता है। कोई-कोई कैदियों को अधिक से अधिक यातनाएँ देने की शिक्षा देते हैं। कोई मधुमक्खियों को पीड़ा पहुँचा कर, उनका छत्ता तोड़ कर उसमें से मधु निकालना सिखलाते हैं। तात्पर्य यह है कि विवेकविकल लोग अनेक प्रकार से ऐसे वचनों का प्रयोग करते हैं, जो हिंसा आदि अनर्थों के कारण हैं और हिंसाकारी वचन मृषावाद में ही गभित हैं, भले ही वे निस्वार्थ भाव से बोले जाएँ / अतः सत्य के उपासकों को अनर्थकर वचनों से बचना चहिए। ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे प्रारम्भ-समारम्भ आदि को उत्तेजना मिले या हिंसा हो। ५५-~-जताई विसाई मूलकम्मं प्राहेवण-प्राविषण-प्राभित्रोंग-मंतोसहिप्पप्रोगे चोरिय-परवारगमण-बहुपाबकम्भकरणं बंधे गामघाइया प्रो बणदहण-तलागमेयणाणि बुद्धिक्सिविणासणाणि वसीकरणमाइयाई भय-भरण-किलेसबोसनणणाणि भावबहुसंकिलिनुमलिगाणि भूमधामोवघाइयाई सच्चाई विताई हिसगाई क्यणाई उदाहरति / ५५-मारण, मोहन, उच्चाटन आदि के लिए (लिखित) यन्त्रों या पशु-पक्षियों को पकड़ने वाले यन्त्रों, संखिया आदि विषों, गर्भपात आदि के लिए जड़ी-बूटियों के प्रयोग, मन्त्र आदि द्वारा नगर में क्षोभ या विद्वेष उत्पन्न कर देने अथवा मन्त्रबल से धनादि खींचने, द्रव्य और भाव से वशीकरण मन्त्रों एवं औषधियों के प्रयोग करने, चोरी, परस्त्रीगमन करने आदि के बहुत-से पापकर्मों के उपदेश तथा छल से शत्रुसेना की शक्ति को नष्ट करने अथवा उसे कुचल देने के, जंगल में प्राग लगा देने, तालाब आदि जलाशयों को सुखा देने के, ग्रामघात-गांव को नष्ट कर देने के, बुद्धि के विषय-विज्ञान आदि अथवा बुद्धि एवं स्पर्श, रस आदि विषयों के विनाश के, वशीकरण आदि के, भय, मरण, क्लेश और दुःख उत्पन्न करने वाले, अतीव संक्लेश होने के कारण मलिन, जीवों का घात और उपघात करने वाले वचन तथ्य (यथार्थ) होने पर भी प्राणियों का घात करने वाले होने से असत्य वचन, मृषावादी बोलते हैं / विवेचन-पूर्व में प्रतिपादित किया जा चुका है कि वस्तुतः सत्य वचन वही कहा जाता है जो हिंसा का पोषक, हिंसा का जनक अथवा किसी भी प्राणी को कष्टदायक न हो। तो हो किन्तु हिंसाकारक हो, वह सत्य की परिभाषा में परिगाणित नहीं होता / अतएव सत्य की शरण ग्रहण ररने वाले सत्पुरुषों को अतथ्य के साथ तथ्य असत्य वचनों का भी त्याग करना आवश्यक है। सत्यवादी की वाणी अमृतमयी होनी चाहिए, विष वमन करने वाली नहीं / उससे किसी का अकल्याण न हो। इसीलिए कहा गया है सत्यं ब्र यात् प्रियं ब्र यात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् / अर्थात् सत्य के साथ प्रिय वचनों का प्रयोग करना चाहिए / अप्रिय सत्य का प्रयोग असत्य. प्रयोग के समान हो त्याज्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org