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________________ लोमजन्य अनर्थकारी झूठ [69 विवेचन–प्रस्तुत पाठ में ऐसे लोगों का दिग्दर्शन कराया गया है जो ईर्ष्यालु हैं और इस कारण दूसरों को यशकोत्ति को सहन नहीं कर सकते / किसी की प्रतिष्ठावृद्धि देखकर उन्हें घोर कष्ट होता है। दूसरों के सुख को देखकर जिन्हें तीव्र दुःख का अनुभव होता है। ऐसे लोग भद्र पुरुषों को अभद्रता से लांछित करते हैं / तटस्थ रहने वाले को लड़ाई-झगड़ा करने वाला कहते हैं। जो सुशील-सदाचारी हैं, उन्हें वे कुशील कहने में संकोच नहीं करते। उनकी धृष्टता इतनी बढ़ जाती है कि वे उन सदाचारी पुरुषों को मित्र-पत्नी का अथवा गुरुपत्नी का-जो माता की कोटि में गिनी जाती है-सेवन करने वाला तक कहते नहीं हिचकते / पुण्यशील पुरुष को पापी कहने की धष्टता करते हैं / ऐसे असत्यभाषण में कुशल, डाह से प्रेरित होकर किसी को कुछ भी लांछन लगा देते हैं। उन्हें यह विचार नहीं आता कि इस घोर असत्य भाषण और मिथ्यादोषारोपण का क्या परिणाम होगा? वे यह भी नहीं सोचते कि मुझे परलोक में जाना है और इस मृषावाद का दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा / ऐसे लोग दूसरों को लांछित करके, उन्हें अपमानित करके, उनकी प्रतिष्ठा को / मलीन करके भले ही क्षणिक सन्तोष का अनुभव कर लें, किन्तु वे इस पापाचरण के द्वारा ऐसे घोरतर पापकर्मों का संचय करते हैं जो बड़ी कठिनाई से भोगे विना नष्ट नहीं हो सकते / असत्यवादी को भविष्य में होने वाली यातनाओं से बचाने की सद्भावना से शास्त्रकार ने मृषावाद के अनेक प्रकारों का यहाँ उल्लेख किया है और आगे भी करेंगे। 'लोभजन्य अनर्थकारी झूठ ५२-णिक्खेवे प्रवहरंति परस्स प्रथम्मि गढियगिद्धा अभिजुजति य परं असंतएहि / लुद्धा य करेंति कडसविखत्तणं असच्चा प्रत्यालियं च कण्णालियं च भोमालियं च तह गवालियं च गरुयं भगति प्रहरगइगमणं / अण्णं पि य जाइरुवकुलसीलपच्चयं मायाणिउणं चवलपिसुणं परमट्ठमेयगमसंतगं विद्देसमणस्थकारगं पावकम्ममूलं दुट्टैि दुस्सुयं अमुणियं जिल्लज्ज लोयगरहणिज्जं वहबंधपरिकिलेसबहुल जरामरणदुक्खसोयर्याणम्मं प्रसुद्धपरिणामसंकिलिट्ठ मणंति / - ५२-पराये धन में अत्यन्त आसक्त वे (मृषावादी लोभी) निक्षेप (धरोहर) को हड़प जाते हैं तथा दूसरे को ऐसे दोषों से दूषित करते हैं जो दोष उनमें विद्यमान नहीं होते। धन के लोभी झूठी साक्षी देते हैं / वे असत्यभाषी धन के लिए, कन्या के लिए, भूमि के लिए तथा गाय-बैल आदि पशुओं के निमित्त अधोगति में ले जाने वाला असत्यभाषण करते हैं। इसके अतिरिक्त वे मृषावादी जाति, कुल, रूप एवं शील के विषय में असत्य भाषण करते हैं। मिथ्या षड्यंत्र रचने में कुशल, परकीय असदगुणों के प्रकाशक, सदगुणों के विनाशक, पुण्य-पाप के स्वरूप से अनभिज्ञ, असत्याचरणपरायण लोग अन्यान्य प्रकार से भी असत्य बोलते हैं। वह असत्य माया के कारण गुणहीन है, चपलता से युक्त है, चुगलखोरी (पैशुन्य) से परिपूर्ण है, परमार्थ को नष्ट करने वाला, असत्य अर्थवाला अथवा सत्त्व से हीन, द्वेषमय, अप्रिय, अनर्थकारी, पापकर्मों का मूल एवं मिथ्यादर्शन से युक्त है। वह कर्णकटु, सम्यग्ज्ञानशून्य, लज्जाहीन, लोकहित, वध-बन्धन आदि रूप क्लेशों से परिपूर्ण, जरा, मृत्यु, दुःख और शोक का कारण है, अशुद्ध परिणामों के कारण संक्लेश से युक्त है। विवेचन-प्रकृत पाठ में भी असत्यभाषण के अनेक निमित्तों का उल्लेख किया गया है और साथ ही असत्य की वास्तविकता अर्थात् असत्य किस प्रकार का होता है, यह दिखलाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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