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________________ 66 [प्रश्नव्याकरणसूत्र : अ. 1, अ.२ होती है / समय आने पर ही सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि होती है / अतएव एकमात्र कारण काल ही है।' ये सब एकान्त मृषावाद हैं / वास्तव में काल, स्वभाव, नियति, देव और पुरुषार्थ, सभी यथायोग्य कार्य सिद्धि के सम्मिलित कारण हैं। स्मरण रखना चाहिए कि कार्य सिद्धि एक कारण से नहीं, अपितु सामग्री-समग्र कारणों के समूह-से होती है। काल आदि एक-एक कारण अपूर्ण कारक होने से सिद्धि के समर्थ कारण नहीं हैं। कहा गया है कालो सहाब नियई, पूवकयं पूरिसकारणेगंता / मिच्छत्तं, ते चेव उ समासो होंति सम्मत्तं / / काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (दैव-विधि) और पुरुषकार को एकान्त कारण मानना अर्थात् इन पांच में से किसी भी एक को कारण स्वीकार करना और शेष को कारण न मानना मिथ्यात्व है / ये सब मिलकर ही यथायोग्य कारण होते हैं, ऐसी मान्यता ही सम्यक्त्व है। झूठा दोषारोपण करने वाले निन्दक ५१--प्रवरे प्रहम्मयो रायवुटुं प्रमभक्खाणं भति अलियं चोरोत्ति अचोरयं करतं, डामरि. उत्ति वि य एमेव उवासी, दुस्सोलोति य परदारं गच्छइति मइलिति सोलकलियं, अयं वि गुरुतप्पग्रो त्ति / अण्णे एमेव मणति उवाहणंता मित्तकलत्ताई सेवंति अयं वि लुत्तधम्मो, इमोवि विस्संभवाइयो पावकम्मकारी अगम्मगामी अयं दुरप्पा बहुएसु य पावगेसु जुत्तोति एवं जपति मच्छरी। महगे वा गुणकित्ति-ह-परलोय-णिपिवासा / एवं ते अलियवयणवच्छा परदोसुष्पायणप्पसत्ता वेति अक्खाइयबोएणं प्रप्पाणं कम्मबंधणेण मुहरी असमिक्खियप्पलावा / ५१-कोई-कोई-दूसरे लोग राज्यविरुद्ध मिथ्या दोषारोपण करते हैं। यथा-चोरी न करने वाले को चोर कहते हैं / जो उदासीन है-लड़ाई-झगड़ा नहीं करता, उसे लड़ाईखोर या झगड़ालू कहते हैं / जो सुशील है-शीलवान् है, उसे दुःशील–व्यभिचारी कहते हैं, यह परस्त्रीगामी है, ऐसा कहकर उसे मलिन करते हैं-बदनाम करते हैं। उस पर ऐसा आरोप लगाते हैं कि यह तो गुरुपत्नी के साथ अनुचित सम्बन्ध रखता है। कोई-कोई किसी की कीत्ति अथवा प्राजीविका को नष्ट करने के लिए इस प्रकार मिथ्यादोषारोपण करते हैं कि यह अपने मित्र की पत्नियों का सेवन करता है। यह धर्महीन-अधार्मिक है, यह विश्वासघाती है, पाप कर्म करता है, नहीं करने योग्य कृत्य करता है, यह अगम्यगामी है अर्थात् भगिनी, पुत्रवधू आदि अगम्य स्त्रियों के साथ सहवास करता है, यह दुष्टात्मा है, बहुत-से पाप कर्मों को करने वाला है। इस प्रकार ईर्ष्यालु लोग मिथ्या प्रलाप करते हैं। भद्र पुरुष के परोपकार, क्षमा आदि गुणों की तथा कीत्ति, स्नेह एवं परभव की लेशमात्र परवाह, न करने वाले वे असत्यवादी, असत्य भाषण करने में कुशल, दूसरों के दोषों को (मन से घड़कर) बताने में निरत रहते हैं / वे विचार किए विना बोलने वाले, अक्षय दु:ख के कारणभूत अत्यन्त दृढ़ कर्मबन्धनों से अपनी आत्मा को वेष्टित-बद्ध करते हैं। 1. कालः सृजति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः / कालः सुप्तेषु जागत्ति, कालो हि दुरतिक्रमः / / -प्र. व्या. (सन्मति ज्ञानपीठ) पृ. 212 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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