SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 70 [प्रश्नग्याकरणसूत्र : श्र. 1, अ. 3 धम के लिए असत्य भाषण किया जाता है, यह तो लोक में सर्वविदित है। किन्तु धन-लोभ के कारण अन्धा बना हुआ मनुष्य इतना पतित हो जाता है कि वह परकीय धरोहर को हड़प कर मानो उसके प्राणों को ही हड़प जाता है / इस पाठ में चार प्रकार के असत्यों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है-(१) अर्थालीक (2) भूम्यलोक (3) कन्यालोक और (4) गवालोक / इनका अर्थ इस प्रकार है - (1) प्रलोक-अर्थ अर्थात् धन के लिए बोला जाने वाला अलीक (असत्य)। धन शब्द से यहाँ सोना, चांदी, रुपया, पैसा, मणि, मोती आदि रत्न, आभूषण आदि भी समझ लेना चाहिए। (2) भूम्पलीक-भूमि प्राप्त करने के लिए या बेचने के लिए असत्य बोलना। अच्छी उपजाऊ भूमि को बंजर भूमि कह देना अथवा बंजर भूमि को उपजाऊ भूमि कहना, आदि / (3) कन्यालोक-कन्या के सम्बन्ध में असत्य भाषण करना, सुन्दर सुशील कन्या को असुन्दर या दुश्शील कहना और दुश्शील को सुशील कहना, आदि / (4) गवालीक-गाय, भैस, बैल, घोड़ा आदि पशुओं के सम्बन्ध में असत्य बोलना / चारों प्रकार के असत्यों में उपलक्षण से समस्त अपद, द्विपद और चतुष्पदों का समावेश हो जाता है। संसारी जीव एकेन्द्रियपर्याय में अनन्तकाल तक लगातार जन्म-मरण करता रहता है। किसी प्रबल पुण्य का उदय होने पर वह एकेन्द्रिय पर्याय से बाहर निकलता है। तब उसे जिह्वा इन्द्रिय प्राप्त होती है और बोलने की शक्ति पाती है। इस प्रकार बोलने की शक्ति प्राप्त हो जाने पर भी सोच-विचार कर सार्थक भावात्मक शब्दों का प्रयोग करने का सामर्थ्य तो तभी प्राप्त होता है जब प्रगाढतर पुण्य के उदय से जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय दशा प्राप्त करे। इनमें भी व्यक्त वाणी मनुष्यपर्याय में ही प्राप्त होती है। तात्पर्य यह है कि अनन्त पुण्य की पूजी से व्यक्त वाणी बोलने का सामर्थ्य हम प्राप्त करते हैं। इतनी महर्घ्य शक्ति का सदुपयोग तभी हो सकता है, जब हम स्व-पर के हिताहित का विचार करके सत्य, तथ्य, प्रिय भाषण करें और आत्मा को मलीन-पाप की कालिमा से लिप्त करने वाले वचनों का प्रयोग न करें। . मूल पाठ में पायकम्ममूलं दुट्टि दुस्सुयं प्रमुणियं पद विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं। इनका तात्पर्य यह है कि जिस बात को, जिस घटना को हमने अच्छी तरह देखा न हो, जिसके विषय में प्रामाणिक पुरुष से सुना न हो और जिसे सम्यक् प्रकार से जाना न हो, उसके विषय में अपना अभिमत प्रकट कर देना-अप्रमाणित को प्रमाणित कर देना भी असत्य है। यह असत्य पाप का मूल है। स्मरण रखना चाहिए कि तथ्य और सत्य में अन्तर है / सत्य की व्युत्पत्ति है-सद्भ्यो हितम् सत्यम्, अर्थात् सत्पुरुषों के लिए जो हितकारक हो, वह सत्य है। कभी-कभी कोई वचन तथ्य होने पर भी सत्य नहीं होता। जिस वचन से अनर्थ उत्पन्न हो, किसी के प्राण संकट में पड़ते हों, जो वचन हिंसाकारक हो, ऐसे वचनों का प्रयोग सत्यभाषण नहीं है। सत्य की कसौटी अहिंसा है। जो वचन अहिंसा का विरोधी न हो, किसी के लिए अनर्थजनक न हो और हितकर हो, वही वास्तव में सत्य में परिगणित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy