________________ [ अन्तकृद्दशा भगवान् अरिष्टनेमि की उपासना १८-तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए नयरीए मज्झमझेणं निम्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जाव [जेणेव अरहा अरिट्टनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहो परिदृणेमिस्स छत्तातिछत्तं पडागातिपडागं विज्जाहरचारणे जंभए य देवे प्रोवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता प्ररहं अरिट्टनेमि पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ / तंजहा—(१) सचित्ताणं दव्वाणं विसरणयाए (2) अचित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए (3) एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं (4) चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं (5) मणसो एगत्तीकरणेणं / जेणामेव परहा अरिटुनेमी तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिद्वनेमि तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंद इ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता परहनो अरिढणेमिस्स णच्चासन्न णाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विणएणं] पज्जुवासइ / तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव द्वारका नगरी के मध्य भाग से होते हुए निकले, [निकलकर जहां सहस्राम्रवन उद्यान था और भगवान् अरिष्टनेमि थे, वहाँ आये / पाकर अरिहंत अरिष्टनेमि स्वामी के छत्र पर छत्र और पताकाओं पर पताका आदि अतिशयों को देखा तथा विद्याधरों, चारण मुनियों और ज़भक देवों को नीचे उतरते हुए एवं ऊपर उठते हुए देखा। देखकर पांच प्रकार अभिगम करके अरिहंत अरिष्टनेमि स्वामी के सन्मुख चले। वे पांच अभिगम इस प्रकार हैं -(1) पुष्प-पान आदि सचित्त द्रव्यों का त्याग, (2) वस्त्र-आभूषण आदि अचित्त द्रव्यों का अत्याग, (3) एक शाटिका (दुपट्ट) का उत्तरासंग, (4) भगवान् पर दृष्टि पड़ते ही दोनों हाथ जोड़ना और (5) मन को एकाग्र करना। ये अभिग्रह करके जहां अर्हत् भगवान् अरिष्टनेमि थे वहां आये। आकर अरिहंत अरिष्टनेमि को दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके (तीन बार) प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके भगवान् को स्तुतिरूप वन्दन किया और नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके भगवान् के अत्यन्त समीप नहीं और अत्यन्त दूर भी नहीं, ऐसे समुचित स्थान पर बैठकर, धर्मोपदेश सुनने की इच्छा करते हुए, नमस्कार करते हुए, दोनों हाथ जोड़े, सन्मुख रहकर उपासना करने लगे। धर्मदेशना और विरक्ति 16 तए णं अरहा अरिडणेमी कण्हस्स वासुदेवस्स गयसुकुमालस्स कुमारस्स तीसे य धम्म कहेइ, कण्हे पडिगए / तए णं से गयसुकुमाले अरहयो अरिट्टनेमिस्स अंतियं धम्म सोच्चा, [जं नवरं, अम्मापियरं पापुच्छामि जहा मेहो महेलियावज्जं जाव वडियकुले] [निसम्म हट्टतु? अरहं अरिद्वनेमि तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सद्दहामि णं भत्ते! निग्गथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निगंथं पावयणं, रोएमि णं भंते ! निम्गथं पावयणं, 1. यहाँ सूत्रकार ने गजसुकुमाल के जीवन को "जहा मेहो' यह कहकर मेधकुमार के समान बताकर आगे "महेलियावज्ज' पाठ दिया है, जिसका अर्थ होता है महिलारहित या अविवाहित / ज्ञाता० में मेघकुमार को विवाहित व्यक्त किया है। अत: यहाँ प्रस्तुत शब्द से दोनों की स्थिति को विभिन्नता दर्शायी है। यहाँ 'जाव' पाठ की पूर्ति हेतु इस विभिन्नता को दृष्टि में रख कर उपयुक्त पूति-पाठों को नये रेग्राफ से शुरू किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org