________________ 46] [ अन्तकृद्दशा जइणाए छेयाए दिवाए देवगतीए जेणामेव बारवईए नयरे पोसहसालाए कण्हे वासुदेवे तेणामेव उवागच्छइ, उवामच्छित्ता अंतरिक्खपडिवन्ने दसद्ध वनाई सखिखिणियाई पवरवत्थाई परिहिए-कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-- "अहं णं देवाणुप्पिया! हरिणेगमेसी देवे महिडिए, जं णं तुमं पोसहसालाए अट्टमभत्तं पगिण्हित्ता णं ममं मणसि करेमाणे चिट्ठसि, तं एस णं देवाणुप्पिया ! अहं इहं हव्वमागए / संदिसाहि णं देवाणुप्पिया ! कि करेमि ? कि दलामि ? किं पयच्छामि ? किं वा ते हिय-इच्छितं / " तए णं से कण्हे वासुदेवे तं हरिणेगसि देवं अंतिलिखपडिवन्नं पासइ, पासित्ता हठ्ठतुठे पोसहं पारेइ, पारित्ता करयलपरिग्गहियं] अंजलि कटु एवं क्यासी इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सहोदरं कणीयसं भाउयं विदिण्णं / / उसी समय वहां श्रीकृष्ण वासुदेव स्नान कर, बलिकर्म कर, कौतुक-मंगल और प्रायश्चित्त कर, वस्त्रालंकारों से विभूषित होकर देवकी माता के चरण-वंदन के लिये शीघ्रतापूर्वक आये / वे कृष्ण वासुदेव देवकी माता के दर्शन करते हैं, दर्शन कर देवकी के चरणों में वंदन करते हैं / चरणवन्दन कर देवकी देवो से इस प्रकार पूछने लगे 'हे माता! पहले तो मैं जब-जब आपके चरण-वन्दन के लिये पाता था, तब-तब पाप मुझे देखते ही हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हो जाती थीं, पर माँ ! आज आप उदास, चिन्तित यावत् प्रार्तध्यान में निमग्न-सी क्यों दिख रही हो?" कृष्ण द्वारा इस प्रकार का प्रश्न किये जाने पर देवकी देवी कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहने लगी-हे पुत्र ! वस्तुतः बात यह है कि मैंने समान आकृति यावत् समान रूप वाले सात पुत्रों को जन्म दिया। पर मैंने उनमें से किसी एक के भी बाल्यकाल अथवा बाल-लीला का सुख नहीं भोगा / पुत्र ! तुम भी छह छह महीनों के अन्तर से मेरे पास चरण-वंदन के लिये आते हो / अतः मैं ऐसा सोच रही हूँ कि वे माताएं धन्य हैं, पुण्यशालिनी हैं जो अपनी सन्तान को स्तनपान कराती हैं, यावत् उनके साथ मधुर पालाप-संलाप करती हैं, और उनकी बालक्रीडा के आनन्द का अनुभव करती हैं। मैं अधन्य हूँ अकृत-पुण्य हूँ। यही सब सोचती हुई मैं उदासीन होकर इस प्रकार का आर्तध्यान कर रही हूँ। माता की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण वासुदेव देवकी महारानी से इस प्रकार बोले"माताजी ! आप उदास अथवा चिन्तित होकर प्रार्तध्यान मत करो। मैं ऐसा प्रयत्न करूगा जिससे मेरा एक सहोदर छोटा भाई उत्पन्न हो।" इस प्रकार कह कर श्रीकृष्ण ने देवकी माता को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ वचनों द्वारा धैर्य बंधाया, आश्वस्त किया। इस प्रकार अपनी माता को आश्वस्त कर श्रीकृष्ण अपनी माता के प्रासाद से निकले, निकलकर जहां पौषधशाला थी वहां पाये। ग्राकर जिस प्रकार अभयकुमार ने अष्टमभक्त तप (तेला स्वीकार करके अपने मित्र देव की आराधना की थी, उसी प्रकार श्रीकृष्ण वासुदेव ने भी की। विशेषता यह कि इन्होंने हरिणगमेषी देव की आराधना की। आराधना में अष्टम भक्त तप ग्रहण किया, ग्रहण करके पौषधशाला में पौषधयुक्त होकर, ब्रह्मचर्य अंगीकार करके, मणि-सुवर्ण आदि के अलंकारों का त्याग करके, माला, वर्णक और विलेपन का त्याग करके, शस्त्र-मूसल आदि अर्थात् समस्त प्रारंभ-समारंभ को छोड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org