________________ 44 [अन्तकृद्दशा विवेचन-भगवान् अरिष्टनेमि से छहों मुनियों का वृत्तान्त सुनने पर "ये छहों मेरे ही पुत्र हैं" इस प्रकार की प्रतीति हो जाने पर वह देवकी देवी छहों मुनियों के दर्शन करती है और पुनः पुनः उन्हें देखकर हर्षित होती है, ऐसी स्थिति में उसका छिपा हुया वात्सल्य उजागर हुआ, और स्तनदुग्ध द्वारा प्रकट हो गया / तदनन्तर अपनी स्थिति में समाहित वह अपने भवन में वापस लौटी और विशेष विचारधारा में डूब गई। अग्रिम सूत्र में सूत्रकार उसकी विचारधारा और परिणामधाराओं का दिग्दर्शन कराते हैं। देवकी को पुत्रामिलाषा १३-तए णं तीसे देवईए देवीए अयं अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पण्णेएवं खलु अहं सरिसए जाव नलकुब्बर-समाणे सत्त पुत्ते पयाया, नो चेव णं मए एगस्स वि बालत्तणए समणभूए। एस वि य णं कण्हे वासुदेवे छह-छण्हं मासाणं ममं अंतियं पायदए हन्धमागच्छइ / तं घण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, पुण्णाम्रो णं तानो अम्मयाओ, कयपुण्णाम्रो णं तानो अम्मयानो, कयलक्खणाप्रो णं तारो अम्मयानो, जासि मण्णे णियग-कुच्छि-संभूयाई थणदुद्ध-लुद्धयाई महरसमुल्लावायाई मम्मण-पजंपियाइं थण-मूला कक्खदेशभागं अभिसरमाणाई मुद्धयाई पुणो य कोमल. कमलोवमेहि गिहिऊण उच्छंगे णिवेसियाई देति समुल्लावए सुमहुरे पुणो-पुणो मंजुलप्पमणिए / महं णं प्रधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा अकयलक्खणा एत्तो एक्कतरमवि ण पत्ता, मोहय जाव [मणसंकप्पा करयलपल्हस्थमुही अट्टझाणोवगया] झियायइ / उस समय देवकी देवी को इस प्रकार का विचार, चिन्तन और अभिलाषापूर्ण मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि अहो! मैंने पूर्णतः समान प्राकृति वाले यावत् नलकूबर के समान सात पुत्रों को जन्म दिया पर मैंने एक की भी बाल्यक्रीडा का आनन्दानुभव नहीं किया। यह कृष्ण वासुदेव भी छह-छह मास के अनन्तर चरण-वन्दन के लिये मेरे पास आता है, अतः मैं मानती हूँ कि वे माताएं धन्य हैं, जिनकी अपनी कुक्षि से उत्पन्न हुए, स्तन-पान के लोभी बालक, मधुर आलाप करते हुए, तुतलाती बोली से मन्मन बोलते हुए जिनके स्तनमूल कक्षा-भाग में अभिसरण करते हैं, एवं फिर उन को जो माताएं कमल के समान अपने कोमल हाथों द्वारा पकड कर गोद में बिठाती हैं और अपने बालकों से मधुर-मंजुल शब्दों में बार बार बातें करती हैं। मैं निश्चितरूपेण अधन्य और पुण्यहीन हूँ क्योंकि मैंने इनमें से एक पुत्र की भी बालक्रीडा नहीं देखी। इस प्रकार देवकी खिन्न मन से हथेली पर मुख रखकर (शोक-मुद्रा में) आर्तध्यान करने लगी। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सात-सात पुत्रों की माता बनने पर भी उनकी बाल्यक्रीडा आदि से वंचित देवकी देवी की खिन्न अवस्था-विशेष में उठने वाले संकल्प-विकल्पों का हृदय-द्रावक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। कृष्ण द्वारा चिन्तानिवारण का उपाय १३–इमं च णं कण्हे वासुदेवे व्हाए जाव [कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकार] विभूसिए देवईए देवीए पायवंदए हव्वमागच्छइ / तए णं से कण्हे वासुदेवे देवई देवि पासइ, पासित्ता देवईए देवीए पायग्गहणं करेइ, करित्ता देवई देवि एवं बयासी अण्णया णं अम्मो! तुभे ममं पासित्ता हट्ठतुट्ठा जाव [चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org