________________ अष्टम अध्ययन ] [ 43 के सहयोगी होने के कारण पुत्रादि की प्राप्ति कर लेने पर भक्ति के अतिरेक से उसे देव-प्रदत्त ही मान लेते हैं / पुत्रादि की प्राप्ति में देव को ही प्रधान कारण मान लेते हैं, वे भूल करते हैं, क्योंकि यदि पूर्वोपाजित कर्म के फल को प्रकट करने में देव निमित्त कारण बन सकता है / इसके विपरीत, यदि पूर्व कर्म सहयोगी नहीं है तो एक बार नहीं, अनेकों बार देवपूजा की जाए या देव की अनेकों मनौतियां मान ली जायें तो भी देव कुछ नहीं कर सकते / वस्तुत: किसी भी कार्य की सिद्धि में देव केवलं निमित्त कारण बन सकता है, उपादान कारण नहीं / भगवान् अरिष्टनेमि के श्रीमुख से छहों मुनियों के इतिवृत्त को सुनकर देवकी देवी की क्या दशा हुई, इसका वर्णन अग्रिम सूत्र में किया जा रहा है १२–तए णं सा देवई देवी अरहो अरि?णेमिस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठ जाव' हियया अरहं अरिट्टनेमि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव ते छ अणगारा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते छप्पि अणगारे वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता प्रागयपण्या, पप्पुयलोयणा, कंचुयपरिविग्वत्तया, दरियवलय-बाहा, धाराहय-कलंब-पुप्फगं विव समूससिय-रोमकूवा ते छप्पि अणगारे अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी-पेहमाणी सुचिरं निरिक्खइ, निरिक्खित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव अरहा अरि?णेमो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिटुमि तिक्खुत्तो आयहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ दुरुहिता जेणेव बारवई नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बारवई नरि अणुप्पविसइ, अणुष्पविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागया, धम्मियानो जाणप्पवराओ पच्चोरहइ, पच्चोरुहिता जेणेव सए वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागया सयंसि सयणिज्जंसि निसीयइ। तदनन्तर उस देवकी देवी ने अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान् के पास से उक्त वृत्तान्त को सुनकर और उस पर चिन्तन कर हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदया होकर अरिष्टनेमि भगवान् को वंदन नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके वे छहों मनि जहाँ विराजमान थे वहाँ आई। श्रा / आकर वह उन छहों मुनियों को वंदना नमस्कार करती है। उन अनगारों को देखकर पुत्र-प्रेम के कारण उसके स्तनों से दूध झरने लगा। हर्ष के कारण लोचन प्रफुल्लित हो उठे, हर्ष के मारे कंचुकी के बन्धन टूटने लगे, भुजाओं के प्राभूषण तंग हो गये, उसकी रोमावली मेघधारा से अभिताडित हुए कदम्ब पुष्प की भाँति खिल उठी। वह उन छहों मुनियों को निनिमेष दृष्टि से देखती हुई चिरकाल तक निरखती ही रही / तत्पश्चात् उन छहों मुनियों को बन्दन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार करके जहाँ भगवान् अरिष्टनेमि विराजमान थे वहाँ आई, प्राकर अरिहन्त अरिष्टनेमि को दक्षिण तरफ से तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार करती है। वन्दन-नमस्कार करके उसी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर प्रारूढ होती है। रथारूढ हो जहां द्वारका नगरी थी, वहाँ आती है, प्राकर द्वारका नगरी में प्रविष्ट होती है, प्रवेश कर जहां अपने प्रासाद के बाहर की उपस्थानशाला अर्थात् बैठक थी वहाँ आती है, आकर धार्मिक रथ से नीचे उतरती है, नीचे उतर कर जहां अपना वासगृह था, जहां अपनी शय्या थी उस पर बैठ जाती है / 1. देखिए वर्ग 3, सूत्र 7. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org